________________
जैन साधना में समत्वयोग का स्थान
१. विवेकशीलता;
२. आत्मसजगता; और ३. आत्मसंयम ।
ये तीन बातें ऐसी हैं, जिनका पशुओं के जीवन में अभाव होता है । यदि मनुष्य में इन बातों का अभाव हो जाए, तो वह पशुवत् ही समझा जाता है । मनुष्य को मनुष्य होने के लिये इन तीन गुणों से युक्त होना आवश्यक है । यहाँ यह विचार करेंगे कि इन गुणों का समत्व की साधना से क्या सम्बन्ध है ।
१३
मानवीय गुणों में पहला स्थान विवेकशीलता का है । विवेकशीलता के अभाव में समत्व की साधना सम्भव नहीं है । विवेकशील व्यक्ति ही अकारण उत्पन्न होनेवाले तनावों से मुक्त रह सकता है और तनावों से मुक्त रहना यही समत्वयोगी की साधना का मुख्य लक्षण है । वासना और विवेक ये दो विरोधी तत्व हैं । जहाँ वासना है वहाँ इच्छा और आकांक्षाएँ बनी रहेंगी और जहाँ इच्छा और आकांक्षाएँ बनी रहेंगी वहाँ चैतसिक समत्व सम्भव नहीं है । इच्छाएँ और आकांक्षाएँ स्वयं तनाव की स्थिति है। इसलिए इच्छाओं और आकांक्षाओं पर नियन्त्रण हुए बिना समत्वयोग की साधना सम्भव नहीं है । इसलिये विवेकशीलता का विकास समत्वयोग की साधना के लिये आवश्यक है ।
मनुष्य का दूसरा गुण आत्मसजगता माना गया है । वासनाएँ हमारी आत्मसजगता को समाप्त कर देती हैं। पशुओं का जीवन वासनाओं या मूल प्रवृत्तियों से संचालित होता है, जबकि मनुष्य का जीवन विवेक से संचालित होता है । विवेक आत्मसजगता की स्थिति में ही सम्भव है । यदि आत्मसजगता नहीं होगी, तो विवेक जाग्रत नहीं रहेगा। विवेक को जाग्रत रखने के लिए आत्मसजगता आवश्यक है। आत्मसजगता का मतलब है, हम जो कुछ कर रहे हैं, उसके सम्बन्ध में सजग रहें। हमारा व्यवहार मात्र अन्ध प्रवृत्ति न बने। जो व्यवहार अन्ध प्रवृत्तियों से युक्त होता है वह हमारे चैतसिक समत्व को स्थापित करने में सहायक नहीं होता । चित्तवृत्तियों में विचलन न हो, इसके लिए आत्मसजगता आवश्यक है । दूसरे, आत्मसजगता की स्थिति में चैत्तसिक विकल्प नियन्त्रित होने लगते हैं। चित्त की विकल्पपूर्ण स्थिति को समाप्त करने के लिये आत्मसजगता आवश्यक है। भगवान महावीर के अनुसार हमारा चित्त एक समय में दो कार्य नहीं कर सकता। यदि वह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org