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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
वैरी-बन्धु, संयोग-वियोग, भुवन-वन आदि विषमताओं में भी समत्व का अनुभव करे।"२३
चेतना की दृष्टि से प्राणीमात्र समान है; चाहे वह मनुष्य हो, हाथी या कुन्थुआ हो। अतः सभी शरीरधारी जीवों के प्रति समान व्यवहार करना चाहिए। इस प्रकार जैन धर्म-दर्शन का निर्देश यह है कि जगत् के सभी प्राणियों को आत्मवत् समझकर उनके प्रति व्यवहार करना चाहिए। विचारों के क्षेत्र में अनाग्रह और आचार के क्षेत्र में तृष्णा या आसक्ति तथा राग-द्वेष के प्रत्ययों से ऊपर उठना - यही समत्वयोग की साधना है। संक्षेप में सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण आदि अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में सदैव समभाव रखना यही जैन धर्म की समत्वयोग की साधना है और यही समग्र साधना का सार तत्त्व है।
समत्वयोग आकाश की तरह व्यापक है। यह अन्य समस्त गुणों के लिये आधारभूत है। समत्वविहीन व्यक्ति किसी भी गण का विकास नहीं कर पाता है। समत्वयुक्त आत्मा के ज्ञान, दर्शन और चारित्र सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्-चारित्र बन जाते हैं। व्यक्ति आत्मलक्षी साधना से ही सिद्धि प्राप्त कर सकता है और इस आत्मलक्षी साधना का आधार सामायिक या समत्वयोग ही है। न केवल जैनदर्शन में अपितु अन्य भारतीय धर्म-दर्शनों में भी इस समत्वयोग की साधना के निर्देश उपलब्ध होते हैं। गीता में योग की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि समत्व की साधना ही योग है। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि समत्व की आराधना ही अच्युत अर्थात् परमात्मा की आराधना है।
२३ (क) 'सम्म में सव्सभूदेसु वेर मज्झं ण केणवि । आसाए वोसरित्ता णं समाहि पडिवज्जए ।।
-नियमसार २०१/१०४ । (ख) अमितगति
-सामायिकपाठ ३ । भगवतीसूत्र ७/८ । २५ 'जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ७ ।
-डॉ. सागरमल जैन । २६ 'समत्वं योग उच्यते'
-गीता २/४८ ।
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