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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्-चारित्र तीनों ही समाए हुए हैं। इसलिये आवश्यक नियुक्ति में सामायिक के तीन प्रकार बताए गए हैं - १. सम्यक्त्व-सामायिक; २. श्रुत-सामायिक और ३. चारित्र-सामायिक।
यहाँ सम्यक्त्व-सामायिक का अर्थ सम्यग्दर्शन; श्रुत-सामायिक का अर्थ है सम्यग्ज्ञान और चारित्र-सामायिक का अर्थ है सम्यक्-चारित्र। वस्तुतः मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हमारी चेतना के तीन पक्ष हैं - अनुभव करना, जानना और संकल्प करना एवम् इन तीनों पक्षों को ही जैनदर्शन में क्रमशः दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र के नाम से अभिहित किया गया है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कहें तो चित्तवृत्ति का समत्व, बुद्धि का समत्व और आचरण का समत्व ही सामायिक की साधना है और इसे ही समत्वयोग की साधना भी कहा जा सकता है।
वस्तुतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र की साधना मानवीय चेतना के तीनों पक्षों अर्थात् अनुभूति, ज्ञान और संकल्प को समत्वपूर्ण या सम्यक् बनाए रखने का प्रयास है और यही समत्वयोग की साधना है जैन-साहित्य में ऐसे सैकड़ों सन्दर्भ उपलब्ध हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि समत्वयोग की साधना ही जैन साधना का आधारभूत केन्द्रीय तत्व है। आचार्य हरिभद्र स्पष्ट रूप से कहते हैं कि व्यक्ति चाहे श्वेताम्बर हो, दिगम्बर हो, बौद्ध हो अथवा अन्य किसी धर्म को मानने वाला हो, यदि वह समभाव की साधना करता है तो वह मुक्ति को अवश्य प्राप्त करता है। यहाँ हम देखते हैं कि समदर्शी आचार्य हरिभद्र ने स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया है कि यदि मोक्ष की उपलब्धि का कोई मार्ग है तो वह मात्र समभाव या समत्वयोग की साधना है।
आचार्य हरिभद्र का यह कथन ही हमारे इस समग्र प्रतिपादन का मूल आधार है कि समत्वयोग की साधना जैन धर्म-दर्शन का
३ आवश्यकनियुक्ति, ७६६ । _ 'सेयम्बरो वा आसम्बरो वा बुद्धो वा तहेव अन्नो वा
समभाव भावियप्पा लहइ मुक्खं न संदेहा ।।'
-आचार्य हरिभद्र ।
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