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दूरे सन्तो पकासेन्ति हिमवन्तो व पब्बता ।
असन्तेत्थ न दिस्सन्ति रत्तिखित्ता यथा सरा ॥ सत्पुरुष हिमालय पर्वत की तरह दूर से ही प्रकाशित रहते हैं । असत्पुरुष रात में फेंके गये बाण की नाई दिखाई नहीं देते।
कयिरज्जे कयिराथेनं दल्लहमेनं परक्कमे ।
सिथिलो हि परिब्बाजो मिय्यो आकिरते रजं ॥ जिस काम को करना है, तो उसके करने में दृढ़ पराक्रम के साथ जुट जाय । ढीला-ढाला सन्यासी अधिक धूल उड़ाता है, सिद्ध कुछ नहीं करता।
न चाह न च भविस्सति न चेतरहि विज्जति ।
एकन्तं निन्दितो पोसो एकन्तं वा पसंसितो ॥ ऐसा व्यक्ति कि जिसकी या तो सर्वथा प्रशंसा ही प्रशंसा होती हो, अथवा निन्दा ही निन्दा होती हो, न कोई हुआ है, न है, और न कभी होगा।
यो च पुव्वे पमज्जित्वा, पच्छा तो नप्पमज्जति ।
सो मं लोकं पभासेति, पब्भा मुत्तो व चन्दिमा ॥ जो व्यक्ति एक बार भूल करके फिर भूल नहीं करता, वह मेघ से मुक्त चन्द्रमा की भांति लोक को प्रकाशित करता है।
तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा विवज्जणा बालजणस्स दूरा।
सज्झाय एकंत निषेवणाय सुत्तत्थ संचिन्तणया धिईय ॥ गुरुजनों एव वृद्धों की सेवा, मूखों से दूर रहना, एकाग्रचित्त से सत्साहित्य का अभ्यास एवं चिन्तनमनन करना और अपने चित्त को धीर बनाना ही निश्रेयस-कल्याण का मार्ग है।
आरोग परमालामा संतुट्ठी परमं धनं ।
विस्सास परमा जाती निब्बाणं परमं सुखं । नीरोगता सबसे बड़ा लाभ है, सन्तुष्ट रहना परम धन है, विश्वास सर्वश्रेष्ठ बन्धु है, और निर्वाण सर्वोपरि सुख है।
लवणसमो नत्थि रसो, बिन्नाणसमो बंधवो नत्थि ।
धम्मसमो नत्थि निही, कोहसमो वईरिओ नत्थि ॥ संसार में नमक के समान कोई अन्य रस नहीं है, विज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) के समान कोई बन्धु नहीं है, धर्म के समान अन्य कोई निधि नहीं है, और क्रोध के समान अपना कोई शत्र नहीं है।
MANORAN
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