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ख-३
की अवपिणि के चतुर्थ आरे (या काल) की समाप्ति में तीन वर्ष साढ़े आठ मास शेष रहने पर घटित हुई थी। जिस दिन भगवान महावीर ने निर्वाण लाभ किया उसी दिन उनके प्रधान शिष्य एवं गणधर इन्द्रभूति गौतम को केवलज्ञान एवं अर्हत पद की प्राप्ति हई और उसी दिन उज्जयिनी में अवन्तिनरेश चंडप्रद्योत के पुत्र पालक का राज्याभिषेक हुआ था। महावीर निर्वाण के ४६१ वर्ष पश्चात् उज्जयिनी (मालव) प्रदेश में शकों का सर्व-प्रथम प्रवेश हुआ, ४७० वर्ष पश्चात प्रचलित विक्रम संवत् (कृत या मालव संवत्) का प्रवर्तन हुआ, ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात् शक संवत् (शक शालिवाहन) प्रारम्भ हुआ, ६८३ वर्ष पर्यन्त महावीर की द्वादशांगवाणी के अंग-पूर्वी का क्रमश: ह्रास को प्राप्त होता हुआ ज्ञान गुरुपरंपरा में मौखिक द्वार से, अपने मूल रूप में सुरक्षित रहा, और निर्वाण के एक सहस्र वर्ष उपरान्त प्रथम कल्कियुग हुआ। महावीर के उपरान्त मूल आचार्य परम्परा उपरोक्त ६८३ वर्ष पर्यन्त चलती है, जिसके पश्चात, उप्सीको आधार बनाकर, विभिन्न संघ-गण-गच्छादिकों के इतिहास, पट्टावलियों एवं गुर्वावलियां प्रारम्भ होती हैं। यदि यह परम्परा प्राप्त न होती तो प्रारम्भिक जैन संघ और जैन साहित्य के भी, इतिहास का पुननिर्माण और ईस्वी सन की प्रारम्भिक शताब्दियों में हुए जैन गुरुओं एवं ग्रन्थकारों का समय निर्णय करना एवं पूर्वापर निश्चित करना अत्यन्त दुष्कर होता। जैनों ने उपरोक्त महावीर सम्वत का प्रयोग विशिष्ट व्यक्तियों एवं घटनामों का समय सूचन करने के लिये मात्र अपनी धार्मिक अनुश्रुतियों में ही नहीं किया, वरन कई जैन ग्रन्थकारों ने अपनी रचनाओं को पूर्ण करने का समय प्रगट करने में भी किया है तथा कुछ शिलालेखों में भी उसका प्रयोग हुआ है। धार्मिक कार्यों में इस सम्वत का प्रयोग आज भी होता है।
प्राचीन भारत के इतिहास में स्वयं वर्धमान महावीर का अति महत्वपूर्ण स्थान है । ईस्वी सन् के प्रारम्भ के पूर्व से ही चले आये जैन साहित्य में निबद्ध अनुश्रुतियों में उनके जीवनचरित्र एवं देशकाल की स्थिति के विषय में उपयोगी तथा बहुधा विस्तृत जानकारी उपलब्ध है।
उनके पिता राजा सिद्धार्थ वैशाली, जिसकी पहचान वर्तमान विहार राज्य के मुजफ्फरपुर जिले में स्थित बसाढ़ के साथ की गई है,4 के निकटस्थ कुण्डग्राम के ज्ञातवंशी, काश्यपगोत्री वात्य क्षत्रिय थे और अपने ज्ञातृक गण के, जो
1-जैन मान्यता के अनुसार अनादि-अनन्त व्यवहार-काल प्रवाह कल्पों में विभाजित है । प्रत्येक
कल्पकाल के उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी नाम के दो विभाग होते हैं, जो एक के पश्चात एक आते रहते हैं। इनमें से प्रत्येक छह आरों, कालों या युगों में विभाजित होता है। कालचक्र की गणना का प्रारम्भ श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से होता है। वर्तमान में चालू कल्पकाल की अवसर्पिणी का
पांचवा आरा चल रहा है। 2-जैन मान्यता के अनुसार महावीर निर्वाण के ५०० वर्ष पश्चात एक उपकल्कि और सहस्र वर्ष पश्चात
एक कल्कि होता है। ये कल्कि-उपकल्कि धर्मद्रोही अत्याचारी उच्छं खल शासक होते हैं, और
इनका यह क्रम आगे भी चलता रहता है। 3-यथा कुन्दकुन्दाचार्य की प्राकृत भक्तियां (८ ई० पू०-४४ ई०), यतिवृषभकृत तिलोयपण्णत्ति (लग
भग २०० ई०), पूज्यपादकृत दशभक्तिः (ल० ५०० ई०), धवल एवं जयधवल (७८० ई०), आचारांग, उत्तराध्ययम, भगवती आदि आगमसूत्र तथा उत्तरवर्ती आगमिक साहित्य और जैन पौराणिक साहित्य
आदि में। 4-देखिये विषयेद्रसूरिकृत 'वैशाली' (दिल्ली, १९४६) 5-पूज्यपाद ने चरित्रभक्ति में उन्हें 'श्री मज्ज्ञातकुलेन्दुना' लिखा है, इसी से महावीर 'ज्ञातृपुत्र' कह
लाते थे, जिसका अपभ्रन्श नायपुत्त या नातपुत्त हुआ-पालिबौद्धसाहित्य में महावीर का उल्लेख निगंठनातपुत्त नाम से ही हुआ है।
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