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कोई परिग्रह अपने पास नहीं रखते, शत्रु-मित्र में समभाव रहते हैं । जैन आगमों में, सदैव परमपद का अन्वेषण करते रहने वाले इन अनगार साधुओं कि सिंहवत पराक्रमी, गजवत् कर्म-युद्ध विजयी, वृषभवत् संयमवाहक, मृगवत यथालाभ सन्तुष्ट, पशुवत निरीह भिक्षाचारी, पवनवत् निर्लेप, सूर्यवत् तपस्वी, सागरवत् गम्भीर, मेरुवत् अकम्प, चन्द्रवत् सौम्य, मणिवत् प्रभापुंज, क्षितिवत् तितिक्षु, सर्पवत् अनिश्चित स्थानवासी, तथा आकाशवत् निरालम्ब बताया है | श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, अनगार, भदन्त, दान्त, यति आदि उनके लिए प्रयुक्त एकार्थवाची विशेषण हैं । नारी संतनी आर्थिका, क्षुल्लिका, साध्वी, आर्या, ब्रह्मचारिणी आदि कहलाती हैं । जो गृहत्यागी धर्मसेवी एवं जनसेवी महानुभाव पूर्ण मुनिधर्म पालन नहीं करते, किन्तु सामान्य श्रावकों की भाँति गृहस्थ अवस्था में भी नहीं रहते, वे ऐल्लक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी, वर्णी आदि कहलाते हैं । मध्यकाल में कुछ साधु तत्कालिक विविध परिस्थितियों के कारण वस्त्रधारी होकर मठों में भी रहने लगे । वे भट्टारक, श्री पूज्य, गृहस्थाचार्य आदि भी कहलाये । ये सभी स्त्री-पुरुष जैन सन्त 'तिन्नाणं तारयाणं' - स्वयं तिरें और दूसरों को तारें, ऐसे स्व-पर कल्याणकारी होते हैं। जहां वे विचरते हैं वह क्षेत्र धन्य होता है, और जो गृहस्थ इन सन्तों के समागम का लाभ उठाते हैं और उनकी सेवा का अवसर प्राप्त करते हैं, वे भी धन्य हो जाते हैं। सच्चे वास्तविक आदर्श सन्तों का समागम अति दुर्लभ होता है ।
उत्तर प्रदेश का परम सौभाग्य रहा है कि यहां ऐसे सन्त सदैव से होते रहे हैं । युग के आदि में भगवान ऋषभदेव ने इसी प्रदेश में सर्वप्रथम साधु मार्ग का प्रवर्तन स्वयं अपने आदर्श द्वारा तथा अनेक पुरुषों एवं नारी शिष्यों को साधु धर्म में दीक्षित करके किया था । तदनन्तर अन्य तेईस तीर्थंकर स्वयं तथा उनके अपने-अपने तीर्थ के साधु-साध्वियाँ इस प्रदेश में विचरते रहे । भगवान महावीर के समय में पूर्ववर्ती तीर्थंकर पार्श्व की परम्परा के केशि कुमार आदि अनेक साधु इस प्रदेश में विचर रहे थे । भगवान महावीर, उनके गौतमादि गणधरों तथा उनके संघ के अनेकों मुनि एवं आर्यिकाएँ इस प्रदेश में विचरे । महावीर के उपरान्त अन्तिम केवलि जम्बूस्वामी और उनके साधिक पांचसौ शिष्य सन्तों ने मथुरा के चौरासी क्षेत्र पर तप किया और सद्गति प्राप्त की । तदनन्तर, २री शती ई० पू० से लगभग ५वीं शती ई० पर्यन्त मथुरा जैन सन्तों का इस प्रदेश में प्रधान एवं बृहत् केन्द्र था । वहां से प्राप्त तत्कालीन शिलालेखों में ८५ विभिन्न जैन मुनियों ओर २५ आर्यिकाओं के तो नाम भी प्राप्त होते हैं, जिनमें कुमार या कुमारनन्दि, कण्हश्रमण, आर्यमंखु, नागहस्ति, महारक्षित, भदन्त जयसेन, नागनन्दि, आर्यबलदिन, महानन्दि, वाचक वृद्धहस्ति वाचक भगिनन्दि, गणीनागसेन, वाचक ओघनन्दि, वाचक आर्य हस्तहस्ति वाचक आर्यदेव, मुनि कुमार दत्त, आर्यिका जीवा, आर्या दत्ता, आर्या षष्ठिसिंहा, ऋषिदास, पुष्यमित्र, आर्य मिहिल, आर्या श्यामा, आर्य ज्येष्ठहस्ति, आर्य नागभूति, वाचक सन्धिक, आर्या जया, आर्या संगमिका, आर्या वसुला, आर्य जयभूति, आर्य गृहरक्षित, वाचक मातृदिन, वाचक संघसिंह, आर्य बलनात आदि सन्त सन्तनियाँ शुंग-शक- कुषाणकाल (लगभग २००ई० पू० - २००ई०) के चार सौ वर्षों में विशेष महत्वपूर्ण रहे प्रतीत होते हैं । मथुरा के अतिरिक्त उच्चनगर एवं वरण ( बुलन्दशहर), कोल (अलीगढ़), अहिच्छत्रा, संकिसा हस्तिनापुर, कौशाम्बी, श्वेताम्बिका, वज्रनगरी आदि उस युग में, इस प्रदेश में जैन मुनियों के प्रसिद्ध केन्द्र थे । उस काल के उक्त जैन साधुओं ने स्वयं को विभिन्न गण-शाख-कुलों आदि में व्यवस्थित रूप से संगठित किया हुआ था, और उन्होंने अपने धर्मात्मा श्रावक-श्राविकाओं से 'सर्व सत्त्वानां हिताय, सर्व सात्त्वानां सुखाय' अनगिनत विविध धार्मिक कृत्य एवं निर्माण कराये थे । दक्षिण के आचार्य समन्तभद्र स्वामी भी काशी आये थे, ऐसी एक अनुश्रुति है ।
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गुप्तकाल ( ५वीं शती ई०) में मथुरा के दतिलाचार्य और पंचस्तूपनिकाय के काशिवासी निर्ग्रन्थ श्रमणाचार्य गुहनन्दि अति प्रसिद्ध थे । इन गुहनन्दि के शिष्य-प्रशिष्य उत्तर प्रदेश में ही नहीं, बिहार और बंगाल में
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