Book Title: Bhagavana  Mahavira Smruti Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Mahavir Nirvan Samiti Lakhnou

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Page 455
________________ १२४ ] नहीं है लेकिन जो पढ़ा जा सका है उससे सं० ८४ की संभावना अधिक है । ( प्राप्ति स्थान कटरा केशव देव, मथुरा) । बी० १८ वर्धमान की छोटी प्रतिमा जिसमें वह सिहासन पर ध्यान मुद्रा में आसीन है, केवल टांगें और हाथ अवशिष्ट हैं । स्तम्भ पर रखे धर्मचक्र की दो पुरुष और दो महिला उपासक पूजा कर रहे हैं और नीचे उत्कीर्ण लेख के अनुसार कोट्टिय गण और बच्छलिक कुल के चोट ने ऋषिदास के साथ वर्धमान् की प्रतिमा स्थापित की। ( प्राप्ति स्थान माता मठ, होली दरवाजा, मथुरा ) बच्छलज्ज कुल का उल्लेख कंकाली से प्राप्त अन्य जैन अभिलेख में भी हुआ है। यह अब लखनऊ संग्र हालय में है । - ख -६ ३२.२१२६ - यह भी तीर्थंकर प्रतिमा की चरणचोकी का अंश मात्र है जिस पर चार पंक्तियों का छोटा अखिलेख है । इसके अनुसार वर्धमान की इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा दल की पत्नी, धर्मदेव की पुत्री ने भवदेव के लिए कराई (प्राप्ति स्थान यमुना, मथुरा ) | अन्य जिन प्रतिमाएं — कुछ ऐसी भी तीर्थंकर प्रतिमाएं हैं जिसमें न तो संवत् या शासक का नाम है और न तीर्थंकर का ही नाम है, फिर भी कला और मूर्ति शास्त्र की दृष्टि से उनका स्वतन्त्र महत्व है। बी० १२ पद्मासन में ध्यान भाव में आसीन शिरविहीन जिन प्रतिमा चरणचौकी सिंहासन का रूप लिए है जिस पर पुरुष, स्त्री और बाल उपासक हैं। इसी से मिलती-जुलती प्रतिमा बी० ६३ है । बी० ३७ यह तीर्थंकर की आवक्ष प्रतिमा है। प्रभामण्डल के चिह्न नहीं है शिर पर छोटे घुंघराले बाल हैं । 1 १५.४६६ यह भी तीर्थंकर की आवक्ष प्रतिमा है। प्रभामण्डल का जो भाग अवशिष्ट है उससे ज्ञात होता है कि यह पर्याप्त विकसित था जिसमें हस्तिनख प्रणाली के अतिरिक्त पूर्ण कमल और एकावली भी है अतः इसे कुषाण और गुप्त काल के बीच का माना जा सकता है। बी० ३२ सिर तथा पैर विहीन तीर्थंकर की बड़ी प्रतिमा जिसमें नीचे चंवर लिये दो पार्श्वचर भी बने हैं। - अन्य मूर्ति बी० ३५ भी इसी प्रकार की है किन्तु पार्श्वचर नहीं हैं। बी० ६२ - सर्वफणों से आच्छादित पट्ट २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की आवक्ष प्रतिमा है । प्रत्येक सर्पफण पर भिन्न शोभा प्रतीकों का अंकन इसकी मुख्य विशेषता है ये चिह्न हैं । स्वस्तिक, शराव सम्पुट, श्रीवत्स, त्रिरत्न, पूर्णघट तथा मीन मिथुन । Jain Education International नेमिनाथ यह स्पष्ट किया जा चुका है कि २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ को श्रीकृष्ण के ताऊ समुद्रविजय का पुत्र माना जाता है और इस जैन परम्परा का अंकन कुषाण काल से ही मिलता है । संग्रहालय में कुछ ऐसी मूर्तियां हैं जिनमें नेमिनाथ बीच में ध्यान भाव में आसीन हैं और उनके एक और सर्पफणों की छतरी से युक्त बलराम और दूसरी ओर कृष्ण खड़े हैं। कालान्तर में तो बलराम के आयुध और मुद्राएं और भी स्पष्ट हो गए हैं। कुषाण युगीन एक प्रतिमा (३४.२४८८ ) में ध्यान मुद्रा में आसीन जिन के मस्तक के पीछे हस्तिनख प्रणाली का प्रभा मण्डल है । मूर्ति के दाहिनी ओर सर्पफणों से युक्त बलराम हैं और बाईं ओर मुकुट पहने श्रीकृष्ण, ऊपर एक कोने पर मालाधारी गन्धर्व है। अन्य मूर्ति ( ३४.२५०२ ) में मध्य में आवक्ष नेमिनाथ के दाहिनी और सात सर्पफणधारी चर्तुभुजी बलराम हैं जिनके ऊपर के बाएं हाथ मुख्य पहचान है। बाई ओर श्रीकृष्ण को विष्णु रूप में दिखाया है जिनके चार भुजा हैं, ऊपर के दाहिने हाथ में लम्बी गदा है, एक बाएं हाथ में चक्र है, अन्य दो हाथ अप्राप्य हैं। ऊपर दोनों कोनों में उड़ते विद्याधर हैं। यह प्रतिमा कृषाण काल के अन्त और गुप्त युग के आरम्भ की प्रतीत होती है। में हल है जो बलराम की For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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