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उत्तर भारत के तीन प्राचीन तीर्थ
-मुनि जयानन्द विजय
युग-युगों से आर्य, धर्मानुष्ठानों में जागरुक रहे हैं, अनार्य नहीं। अनार्यों ने जिसे उखाड़ा है, आर्यों ने उसे बसाया है। यहां बस जाने के कारण शायद यह भारत आर्यावर्त के नाम से इतिहास में अभिहित हुआ हो । आर्य सभी जातियों के साथ हिलमिल कर चलते थे तभी आज यह आर्यावर्त अनेक धर्मों का स्थान बना हुआ है । पवित्र पूजनीय स्थानों का, तीर्थों का केन्द्र बना हुआ है । तीर्थ दो विभागों में विभक्त है-पहला स्थावर तीर्थ तथा दूसरा जंगम तीर्थ । सर्व प्रथम तीर्थ जंगम होते थे, उनकी अनुपस्थिति में स्थावर तीर्थों का निर्माण हुआ, जिसमें उत्तर भारत भी अछूता न रहा ।
बाराणसी
वैदिक साहित्य के कथनानुसार वारणा और असि नदी के बीच में महर्षि भरद्वाज की प्रेरणा से महाराजा दिवोदास ने वाराणसी की स्थापना की। तत्पश्चात यह नगरी संस्कृति की सुप्रतिष्ठित स्थली बनी। इस नगरी में श्रमण संस्कृति एवं वैदिक संस्कृति का वर्चस्व युग-युगों तक रहा । फिर गंगा नदी भारत की पूण्यतोया सरिता मानी गई। उसका महात्म्य किस से अज्ञात रहा है । इसी धरा पर श्री पार्श्वनाथ स्वामी के तीन (च्यवन, जन्म तथा दीक्षा) कल्याणक हए थे । श्रमण भगवान श्री महावीर के समान काशीनरेश महाराजा अश्वसेन की महारानी बामा देवी के नन्द श्री पार्श्व कुमार का यौवनकाल संदिग्ध है । उभय के पाणिग्रहण की विडम्बनाएँ परम्पराओं में विकीर्ण हैं, परम्परा अर्थात प्रमणा । भगवान के जीवन चित्रण करने वाले अक्षर चञ्चु उनकी जीवन घटनाओं से अपरिचित थे या भावावेग के कारण वह घटनाएँ उनसे अछूती रह गईं, अथवा लोक प्रवाद में प्रचलित लोक कथाओं का चित्रण किया गया हो, तथा लिखने के बाद उसे पूनः देख न पाये हों ? कालान्तर में वही उन्हीं को बांट कर बैठ गये । भगवान बटें नहीं, भगवान का जीवन बट गया। बिना साहित्य के आज दिन कोई बंटा नहीं साहित्य परम्पराओं के अंकुर को समाये बैठा है। चरित्रों में श्री पावकुमार को विवाहित माना गया है। पाणिग्रहण के लिए कुशलस्थल (कन्नौज) प्रदेश में जाने पर वहाँ कलिंगादि देशों के यवनों ने संघर्ष की ठानी। राज कुमार पार्श्व की ललकार के समक्ष सभी यवन विनीत हो गये और परस्पर मैत्री सम्बन्ध स्थापित किया । इत्यादि घटनाएँ चरित्रों में उल्लिखित हैं परन्तु मल में तो इन्हें कुमार नाम से पाया जाता है। राज्य भार वहन न करने पर इन्हें कुमार मान लिया गया हो तो यह बात असंदिग्ध है। कुमाराणामराजभावेन वास कुमार वास ।।
-स्थाणाङ्गसूत्र ठाणा ५ उद्देश्य ३
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