Book Title: Bhagavana  Mahavira Smruti Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Mahavir Nirvan Samiti Lakhnou

View full book text
Previous | Next

Page 480
________________ ख -७ [ १७ तथा डा. झिनक यादव का "आचार्य हरिभद्रसूरी कृत समराइच्च कहा में जैन धर्म और दर्शन" पर निबन्ध पढ़े गये और चर्चा हई। दिनांक १४ मार्च १९७५ को हिन्दू विश्वविद्यालय आकस्मिक रूप से अनिश्चित काल के लिए बन्द हो जाने के कारण अन्म सत्रों का कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया । प्रदर्शनी--इस अवसर पर भारत कला भवन में एक कला एवं पुरातत्व प्रदर्शनी का आयोजन भी किया गया जिसमें कला भवन में संरक्षित सामग्री के साथ-साथ भारत के विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्ध एवं संग्रहालयों में संरक्षित ईसापूर्व दूसरी शती से लेकर बारहवीं शती तक की दुर्लभ सामग्री के चित्रों का एवं सचिन ग्रंथों का प्रदर्शन किया गया । प्रदर्शनी के लिए चित्रों का चयन इस प्रकार किया गया था जिसमें कि महावीर और उनकी परम्परा की सांस्कृतिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व हो सके। साहित्य प्रदर्शनी में अर्धमागधी और शौरसेनी आगम, धर्म दर्शन, जैन न्याय, ध्यान योग, पुराण, काव्य, नाटक, इतिहास, कला, स्थापत्य, छन्द अलंकार, कोष, व्याकरण, ज्योतिष, चिकित्सा विज्ञान, पत्र-पत्रिकाएं एवं पिछले साठ वर्षों में प्रकाशित संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, मराठी, कन्नड, फ्रेंच, जर्मन, इटालियन तथा अंग्रेजी के दुर्लभ एवं अप्राप्य विशिष्ट किया गया। परिसंवाद गोष्ठी-वाराणसी में ३१ अक्टबर व १-२ नवम्बर को प्रो० निर्मल कुमार बोस स्मारक प्रतिष्ठान के तत्वावधान में राज्य समिति के आर्थिक सहयोग से "जैन धर्म और संस्कृति : आधुनिक संदर्भ में" विषय पर एक समाजनैज्ञानिक परिसंवाद गोष्ठी का आयोजन किया गया। समाज गैज्ञानिकों ने भारतीय संस्कृति की अब तक जो व्याख्या की है उसमें इस प्राचीन और ऐश्वर्यवान संस्कृति का सिर्फ ब्राह्मण विचार धारा का ही पक्ष निखर पाया है। किन्तु ब्राह्मणेतर विचारधाराओं के परिवेश से हट कर भारतीय संस्कृति की व्याख्या अधूरी है। कुछ प्रसिद्ध समाज गैज्ञानिकों का कहना है कि भारतीय संस्कृति पर कर्मवाद, चक्रीय परिवर्तन और वर्ण भेद जैसी मानव को अशक्त बनाने वाली अवधारणाओं का व्यापक प्रभाव है, जिसके कारण यह देश परिवर्तन और प्रगति के लिए आन्तरिक रूप से अक्षम है। किन्तु यह विचार भ्रामक है और जैन तथा बौद्धशास्त्रों में परिवर्तन और प्रगति की ओर प्रेरित करने वाली अवधारणाएं भरी पड़ी हैं। दुर्भाग्यवश अधिकांश समाजवैज्ञानिक इनसे अपरिचित रहे हैं और दर्शन के विद्वान इन्हें शुष्क तर्क का विषय बनाये हुये हैं । आज के संदर्भ में राष्ट्रीय संस्कृति के प्रति निष्ठा तथा व्यापक मानवीय मूल्यों को लेकर नए समाज की संरचना में-इन देशज अवधारणाओं की व्याख्या सिर्फ बौद्धिक चर्चा के लिए ही नहीं वरन् जनजागरण के लिए भी आवश्यक है । इस परिवेश में इस समाजवैज्ञानिक गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें जैन दर्शन के अधिकारी विद्वानों और समाज विज्ञान के विशेषज्ञों ने निम्नांकित विषयों तथा अवधारणाओं पर गंभीर विचार चिंतन प्रस्तुत किया : १. मानव की अवआरणा-सामान्यतया पुरुषार्थ की अवधारणा ईश्वरवाद और कर्मवाद के व्यापक सिद्धान्त से क्षीण हो जाती है, किन्तु भगवान महावीर के अनीश्वरवाद में मानव सत्ता की महत्ता को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है जो पुरुषार्थ की ओर प्रेरित करता है । २. शुचि और अशुचि की अवधारणा-भारतीय समाज में ऊंच-नीच और अछूत जैसे वर्ग भेद को शुचि और अशुचि की अवधारणा से बल मिलता है। दूसरी ओर यह भी कहा जाता है कि पवित्र संकुल की अवधारणा से भारतीय संस्कृति की विविधता में एकता आई है। शुचि की अवधारणा के अनुरूप ही वैयक्तिक और सामाजिक आचरण बनता है। किन्तु जैनधर्मी शुचि-अशुचि की अवधारणा आचार व्यवस्था तथा श्रम की अवधारणा पर आधारित है न कि पवित्र संकुल पर और स्वच्छ तथा सुगढ़ समाज के निर्माण के लिए अत्यन्त उपयोगी है। ३. परिवर्तन और प्रगति की अवधारणा-ईश्वरीय सृष्टि, कर्मवाद और चक्रीय परिवर्तन की अवधारणाएं प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रगति की परिकल्पना को दुर्बल बनाती हैं। इसके विपरीत अनीश्वरवादी जैनधर्म में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516