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का आयोजन किया गया जिनमें भगवान महावीर की शिक्षाओं पर प्रकाश डाला गया, वाद विवाद प्रतियोगिताएँ, निबन्ध प्रतियोगिताएँ, अहिंसा मेले, सांस्कृतिक प्रदर्शनी आयोजित की गई। ९६. धर्म चक्र का प्रवर्तन
श्री दि. जैन भगवान महावीर का २५००वां निर्वाण महोत्सव सोसाइटी के प्रयत्न से देश भर में भगवान महावीर के धर्मचक्र को घुमाया गया। इसका उद्घाटन देहली में प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी जी के कर कमलों द्वारा किया गया था तथा ३ जून १९७५ को धर्मचक्र ने उत्तर प्रदेश में प्रवेश किया था। धर्मचक्र भगवान महावीर की शिक्षाओं एवं जीवन दर्शन का प्रतीक है। प्रदेश के सभी जिला अधिकारियों से अनुरोध कर दिया गया था कि वे अपने जिले में धर्मचक्र का यथोचित स्वागत, आदर सम्मान एवं सुरक्षा का प्रबन्ध करने की कृपा करें। राज्य समिति को संतोष है कि प्रायः सभी स्थानों में धर्मचक्र का स्वागत वरिष्ठ स्थानीय अधिकारियों एवं राजनेताओं द्वारा बड़ी श्रद्धा एवं सम्मान के साथ किया गया तथा भव्य शोभायात्राएं निकाली गईं जिनमें भगवान के परिचय एवं शिक्षाओं संबंधी साहित्य को जनता में वितरित किया गया। अनेक स्थानों में इस अवसर पर सार्वजनिक सभाएं भी आयोजित की गयीं जिनमें भगवान महावीर के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की गई।
धर्मचक्र का समापन दि० १६ नवम्बर १९७५ को श्री हस्तिनापुर तीर्थ क्षेत्र पर बड़ी धूमधाम से किया गया। १७. सैमीनार, व्याख्यानमालाएं, विचारगोष्ठियां तथा सांस्कृतिक प्रदर्शनियां
वाराणसी व्याख्यान माला-वाराणसी में हिन्दू विश्वविद्यालय के अन्तर्गत "भगवान महावीर और उनकी परम्परा का भारतीय समाज एवं संस्कृति के विकास में क्या योगदान है" इस तथ्य को अभिव्यक्ति देने के उद्देश्य से भारतीय महाविद्यालय में एक व्याख्यानमाला १२ मार्च १९७५ को आयोजित की गई जिसके अन्तर्गत निम्नलिखित व्याख्यान हुए :
(१) "भगवान महावीर के संदेश की भारतीय जनजीवन और वातावरण में एकात्मकता"-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बताया कि जिस प्रकार पूण्य सलिला नदी मरुस्थल में अंतर्निहित होकर भी समाप्त नहीं हो जाती,उसी तरह महापुरुषों का अवदान, उनके उपदेश कभी समाप्त नहीं होते। वे पुष्प के सौरभ कीतरह समस्त वायुमंडल में व्याप्त हो जाते हैं। महावीर का संदेश भारतीय जन-जीवन और वातावरण में एकात्मक हो गया है।
(२) "जैनधर्म : परम्परा और इतिहास"- पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री ने पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों द्वारा जैन धर्म संबंधी किए गए अनुसंधान कार्यों के प्रकाश में जैनधर्म के पारम्परिक इतिहास का मूल्यांकन करते हुए बताया कि जो तथ्य अभी इतिहास की पकड़ के बाहर हैं उनकी प्रमाणिकता की जांच के अनुसंधान अपेक्षित हैं।
(३) “पिछले ढाई सहस्त्र वर्षों में अहिंसा का बहुआयामी विकास"-डा० विद्यानिवास मिश्र ने विषय का प्रभावक ढंग से निरूपण करते हए इस पर बल दिया कि सहस्त्रों वर्षों की सीधी यात्रा की महती उपलब्धियां बेमानी और अर्थहीन नहीं हैं।
सेमिनार-वाराणसी में सेमिनार का आयोजन दिनांक १३-१४ मार्च, १९७५ को चार सन्नों में किया गया था जिसके अन्तर्गत 'भारतीय कला, संस्कृति और साहित्य को जैनधर्म का योगदान' के विषय पर एक परिचर्चा आयोजित थी। प्रथम दिन डा० गोकुल चन्द जैन का निबन्ध "जैन कला की पृष्ठभूमि, स्तूप तथा गुफा मन्दिर"
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