Book Title: Bhagavana  Mahavira Smruti Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Mahavir Nirvan Samiti Lakhnou

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Page 454
________________ [ १२३ १९.१५६५-यह भी चरणचौकी का भाग है जो सं० ३३ (१११ ई०)का है। यह हुविष्क का समय था (प्राप्ति स्थान : मुहल्ला रानीपुरा, मथुरा)। बी० २९-चरणचौकी जिस पर ध्यानस्थ जिन की टांगें भी हैं । नीचे धर्मचक्र और उपासक हैं । अभिलेख से सूचना मिलती है कि सं० ५० में महाराज देवपुत्र हुविष्क अर्थात् १२८ ई० में इसकी स्थापना हुई। ४५.३२०८-जिन चरणचौकी का आधार जिसमें धर्मचक्र और उपासक हैं। यह संवत् ८२ (१६० ई.) की है जो वासुदेव के राज्य का है। इसमें तीर्थंकर का नाम वर्धमान दिया है। बी० २–यह ध्यान भाव में बैठे जिन की प्रतिमा है, सिर और बायां हाथ लुप्त है । वक्ष पर श्रीवत्स का जिह्न है। हथेली और पैरों के तलवों पर भी शोभा लक्षण बने हैं। नीचे अभिलेख से ज्ञात होता है कि महाराज वासुदेव के राज्यकाल में सं० ८३ अर्थात् १६१ ई० में जिनदासी ने इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई। जिनदासी सेन की पुत्री, दत्त की पुत्रवधू और गन्धी व्य..... च की पत्नी थी। (प्रांप्ति स्थान : संभवतः कंकाली टीला, मथुरा) बी० ३—यह प्रतिमा भी लगभग पूर्वोक्त की भांति ही है और संवत् भी वही है । (प्राप्ति स्थान : संभवतः कंकाली टीला, मथुरा)। बी० ४—यह मूर्ति महत्वपूर्ण इसलिए है कि इसमें तीर्थंकर का नाम ऋषभनाथ दिया है। तीर्थंकर ध्यान भाव में आसीन हैं, सिर और भुजा लुप्त है, हस्तिनख प्रणाली से उत्कीर्ण प्रभामण्डल का कुछ भाग शेष है। वक्ष पर श्री वत्स का चिह्न है तथा हथेली और तलवों पर महापुरुष लक्षण सुशोभित हैं। चरणचौकी पर धर्मचक्र और १० पुरुष व स्त्री उपासक हैं। लेख के अनुसार भगवान् अर्हत ऋषभदेव की इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा महाराज राजाधिराज देवपुत्र शाही वासुदेव के राज्यकाल सं० ८४ अर्थात् १६२ ई० में कुमारदत्त की प्रेरणा से भटदत्त उगभिनक की पुत्रबधू...' ने कराई । (प्राप्ति स्थान : बलभद्र कुण्ड, मथुरा)। १४.४९०-यह मूर्ति वर्धमान् महावीर की है किन्तु केवल अवशिष्ट टांगों और पैरों से ध्यान भाव का भान होता है। नीचे चौकी पर धर्मचक्र और उपासक हैं। अभिलेख के अनुसार वर्धमान की यह प्रतिमा कोट्टिय गण के धरवद्धि और सत्यसेन के परामर्श पर दमित की पुत्री ओखारिका ने सं०६४ (१६२ ई०) में प्रतिष्ठित कराई। मति का महत्व तीर्थंकर के नाम से बढ़ जाता । ओखारिका नाम भी उल्लेखनीय है जो सं० २९९ की एक अन्य मूर्ति में भी मिलता है। इस पर विद्वानों ने अनेक मत व्यक्त किये हैं १२ (प्राप्ति स्थान : कंकाली टीला, मथरा) बी०५-ध्यानस्थ सिर तथा बाहविहीन तीर्थंकर जो सिंहासन पर पूर्वोक्त प्रतिमाओं के समान विराजमान है। इसे सं० ९० (१६८ ई०) में दिन की बधु कुटुम्बिनी ने कोट्टिय गण के पवहक कल की मझम शाखा के सैनिक भट्टिबल की प्रेरणा से स्थापित किया । यह वासुदेव का राज्यकाल था। (प्राप्ति स्थान : मथुरा) ४६.३२२३—संवत् ९२ अर्थात् १७० ई० में स्थापित वर्धमान् महावीर की मूर्ति का यह भग्नांश है जिस पर धर्मचक्र और उपसकों की आकृतियां बनी हैं। अभिलेख अपूर्ण है। यह वासुदेव का शासन काल था क्योंकि उसके समय के संवत् ९८ (१७६ ई०) तक की जानकारी हमें अन्य अभिलेख से मिलती है (प्राप्ति स्थानः मोक्ष गली, मथुरा)। संवत् रहित अमिलिखित जिन प्रतिमाएं-संवत् तथा तिथि से अंकित इन प्रतिमाओं के अतिरिक्त काल अन्य तीर्थंकर प्रतिमाएं भी महत्वपूर्ण हैं और इनमें से कुछ में तीर्थंकरों के नाम भी दिए हैं। ४७.३३३३-यह चरण चौकी का अंश मात्र है जिसमें सिंहासन के शेर का मुख और एक महिला उपासिका का मुख है । लेख से सूचना मिलती है कि सोमगुप्त की पुत्री (?) मित्रा ने भगवान सुमतिनाथ की मूर्ति स्थापित की। इस प्रकार ५वें तीर्थंकर सुमतिनाथ की मथुरा में उपासना का एक प्रबल प्रमाण मिल जाता है। संवत् स्पष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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