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दिगम्बर अर्थात नग्न हैं। सिर या तो पूर्णतया सपाट है अथवा छोटे बाल भी हैं, आँखें गोल और खुली हैं, मुख पर कुछ स्मित भाव है । प्रभामण्डल का किनारा केवल हस्तिनख आकृति से उत्कीर्ण है । पैरों के तलवों और हथेलियों पर चक्र, त्रिरत्न आदि शोभा चिन्ह उत्कीर्ण रहते हैं जो उनके महापुरुष होने का संकेत देते हैं । जिन आकृतियां प्रायः सिंहासन पर आरूढ़ दिखाई गई हैं और सिंहाकृतियों के साथ उपासक उपासिकाएं, श्रावक-श्राविकाएं और लेख उत्कीर्ण होता है, जिसमें संवत, महीना, पक्ष, दिन, राजा का नाम और आचार्य आदि का परिचय भी मिलता है । कभी-कभी तीर्थंकर विशेष का नाम भी लिखा मिलता है अन्यथा २४ तीर्थकरों में से दो-तीन को छोड़ कर शेष को पहचानना संभव नहीं है । गुप्तोत्तर काल में तीर्थकरों की पहचान के लिए पृथक-पृथक चिन्हों को निर्धारित किया मिलता है । ।
मथुरा से प्राप्त जैन प्रतिमाएं अधिकांशतः राज्य संग्रहालय लखनऊ में सुरक्षित हैं । डा० फ्यूरर ने कंकाली टीले' के उत्खनन से मिली सभी कलाकृतियों को लखनऊ भेज दिया था। मथुरा संग्रहालय में जो जैन प्रतिमाएं हैं उनसे यह धारणा बनती है कि जैनधर्म के स्मारक कंकाली तक ही सीमित नहीं थे अपितु ब्रज में अन्यत्र भी उपासना स्थल थे । अवश्य ही कंकाली सर्व प्रधान केन्द्र था ।
मथुरा संग्रहालय में जैन कलाकृतियों की संख्या सौ से अधिक है और उनमें अधिकांश कुषाणयुगीन हैं । इनमें आयागपट, तीर्थंकर प्रतिमाएं, वास्तु अवशेष और मूर्तियों की अभिलिखित चरण-चौकियां, उपदेवता तथा श्रावक-श्राविकाओं की आकृतियां सम्मिलित हैं। यहां अधिक प्रमुख प्रतिमाओं का परिचय दिया जाता है ।
आयागपट्ट - मथुरा से प्राप्त अधिकतर आयागपट्ट लखनऊ संग्रहालय में और सिंहनादिक आयाग पट्ट दिल्ली संग्रहालय में है । मथुरा संग्रहालय में एक सम्पूर्ण, एक आधा और तीन भग्नांश हैं । ये प्रथम शताब्दी के आरम्भ से प्रथम शती ई० के अन्त तक के हैं ।
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क्यू० २–यह लगभग पूर्ण तथा सुरक्षित आयागपट्ट है । इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें स्तूप वास्तु का पूरा नकशा उत्कीर्ण है । तदनुसार ऊंची चौकी पर जाने के लिए सीढ़ियाँ हैं और तोरण है जिससे माला लटकती है। यहां से प्रथम वेदिका आरम्भ होती है । दोनों ओर स्तम्भों में से एक पर चक्र है और दूसरे पर सिंह । वेदिका के भीतर विशाल ऊंचा स्तूप दीखता है जिस पर दो ओर वेदिकाएं और शिखर पर भी एक छोटी वेदिका तथा छत्रावली है । स्तूप के नीचे के भाग में दो नर्तकियां हैं। उनसे ऊपर माला और पुष्पधारी सुपर्ण और सबसे ऊपर दो नग्न सिद्ध हैं जिनके हाथ में वस्त्र खण्ड है । स्तूप पर एक अभिलेख उत्कीर्ण है जिसके अनुसार गणिका लोण शोभिका की पुत्री गणिका वसुने सभा भवन, देविकुल, प्याऊ और शिलापट की स्थापना की। इसमें अर्हत वर्धमान अभिवादन किया गया है। देविकुल शब्द विवादास्पद है । लेख में इसे शिलापट कहा गया है ।
४८.३४२६ – इस आयागपट का आधे से अधिक भाग सुरक्षित है । केन्द्र में ऊँचे आसन में तीर्थंकर की आकृति है जिसके दोनों ओर उपासक भी हैं। तत्पश्चात मकर युग्म और पुष्प की इसके पश्चात हाथ जोड़े या माला लिए गन्धर्व युगल है और बीच में चैत्य वृक्ष, त्रिरत्न चिन्ह हैं। में भारवाही आवक्ष मानव आकृतियां हैं ।
१५.५६९ – यह आयागपट्ट का खण्डित भाग है जिसमें एक पट्टी में सपक्ष सिंह और दूसरी में हाथी की सूंड़ और टांगें हैं । बीच में चक्र के होने का अनुमान है। ( प्राप्ति स्थान : कंकाली टीला, मथुरा )
३३.२३१३ – यह भी आयाग पट्ट का भग्नावशेष है। अभिलेख में इसे अरहत की पूजा के निमित्त शिलापट बताया है ।
३५.२५६३ – इस अवशेष की विशेषता है कि इसमें संवत् २१ उत्कीर्ण है । यह कौन सा संवत् है इसका
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पर ध्यान मुद्रा शोभा पट्टी है । ऊपर दो कोनों
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