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लिखा है । विद्वानों का मत है कि रामदास ने इसे स्थापित कराया । पद्मावती उसकी स्त्री का नाम है या वह पद्मावती का रहने वाला होगा । यहीं की एक बैठी बड़ी जिनप्रतिमा की चौकी पर "बलात्कार गण, वीरनंदी, वर्द्धमान, १२१४ फाल्गुन सुदी ९ अंकित है । इससे इस प्रतिमा की स्थापना तिथि ज्ञात हो जाती है ।"
राजकीय संग्रहालय मथुरा में अभिलिखित जैन मूर्तियों का क्रम इस प्रकार है :
कुषाणकाल - क्यू-२ लोणशोभिका का आयागपट्ट; बी० ७१ अभिलिखित चौमुखी सं० ५; नं० १५६५ बैठी प्रतिमा सं० ३० बी० ७०; बी० २९ हुविष्क सं० ५० नं० ४९० ( पैर मात्र शेष) वर्धमान प्रतिमा सं० ८० बी-२ बैठी जिनप्रतिमा - वासुदेव सं० ८३; बी-३ व बी० ४ वासुदेव सं० ८३, ८४; बी० ५, बैठी सं० ९०; नं० २१२६ खंडित बैठी, वर्धमान, तथा शक संवत ९२, ९० एवं १०७ की प्रतिमाएँ ।
गुप्तकाल : - बी- ३१ जिनप्रतिमा बाँया भाग सं० ९७; तथा नं० २६८
(i) सिद्धम् ऋषभस्य समुद्र (ii) सागराभ्यां सङ्करस्य (iii) दत्तासागरस्य प्रतिमा ।
मध्ययुग की लेख युक्त जैन प्रतिमाएँ :- बी० २५ श्वेत, बैठी, संवत १५२६; बी० २२ नेमिनाथ, संवत ११०४ भदेश्वरायगच्छ महिल; नं० २८२५ सुपार्श्वनाथ, संवत १८२६ = १७६९ ई०; नं० ३५४५ सिरहीन बैठी जिनमूर्ति संवत १८२६ ई० = १७६९ ई० ।
राज्य संग्रहालय लखनऊ में जैन मूर्ति लेखों का बृहत् संग्रह है। जैन धातु प्रतिमाएँ लेख युक्त तथा कुछ लेख रहित हैं । किन्तु हैं सभी मध्ययुगीन । लेख युक्त जैन धातु प्रतिमाओं की संख्या तेइस है । '
एक मृण्मूर्ति ( ५३ - ६९ ) है । इसे लखीमपुरखीरी से पाया गया है। उत्कीर्ण है । मिट्टी की जैन मूत्तियाँ वैसे ही दुर्लभ हैं, किन्तु लिखित होने के हो जाती है ।
संग्रह में मध्ययुगीन दो शिलालेख ई- १६ एवं ई- १७ हैं। दोनों ही कच्छपघात कालीन हैं और संवत ११६ व ११६५ के हैं, जो ग्वालियर से प्राप्त हुए हैं। प्रथम में तो रतनपाल द्वारा जैन मंदिर के निर्माण का उल्लेख है तथा दूसरे में “निर्ग्रन्थनाथ" ( दिगम्बर साधु) का उल्लेख है जो किसी शैव साधु का मित्र था ।
इस संग्रहालय में जैनमूत्ति लेखों की संख्या १८० हैं, जो कुषाण, गुप्त, मध्य एवं आधुनिक कालीन हैं । इनके प्राप्ति स्थल मथुरा, श्रावस्ती, बटेश्वर, उन्नाव, महोबा आदि उ० प्र० के स्थानों के अतिरिक्त दूबकुंडग्वालियर एवं छतरपुर-मध्य प्रदेश भी हैं । कतिपय विशिष्ट महत्व के जैन प्रतिमा अभिलेख नीचे दिये जा रहे हैं :सर्वप्रथम है द्वार तोरण (जे - ५३२) जिसमें कुषाणलिपि में " नमो अरहतानं श्रवण श्राविकाये ” अर्थात अर्हन्तों को नमन किया गया है। इसी काल के दो आयागपट्ट जे २४८ पर " नमो महावीर " तथा जे २५६ पर
इस पर गुप्त लिपि में " सुपाएवं" स्पष्ट कारण यह और अधिक महत्व की
५ - मुनिकान्तिसागर, खण्डहरों का वैभव, पृ० २२१
६ – अग्रवाल, डा० वसुदेवशरण, कैटालाग आफ दी मथुरा म्यूजियम, यू०पी० हिस्टा० सोसा० न, XXIII, १–२, पृ० ३६-६५
७. -श्रीवास्तव, वी०एन० एण्ड मिश्र शिवाधार - इन्वेटरी आफ मथुरा म्यु० स्कल्प्चरस, सिन्स १९३९ अपटूडेट, म्यू० बुलेटिन ११-१२ वर्ष ७३, पृ० ९९
८ - जोशी, नीलकण्ठ पुरुषोत्तम, मेटल इमेजेज इन स्टेट म्यू लख०, संग्र० पत्रिका अं० ९, पृ० ३४
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