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[ १०१ उपर्युक्त १७ (४+१३) जिलों में से बुलंदशहर, मथुरा और बाराबंकी जिलों को छोड़कर शेष १४ जिलों के नगरीय क्षेत्रों में ही एक सहस्त्र से अधिक जैनी जन निवास करते हैं । ऐसे जिले जिनके ग्रामीण क्षेत्रों में भी उनकी संख्या एक सहस्त्र अथवा अधिक हैं, आठ हैं। इनके नाम हैं :- मेरठ, झांसी, आगरा, मुजफ्फरनगर, मैनपुरी, एटा, सहारनपुर और बाराबंकी। सबसे कम जैन जनसंख्या वाला जिला गाजीपुर है तथा सबसे कम नगरीय जैन जन संख्या उत्तर काशी जिले में है । ग्यारह जिले ऐसे भी हैं जिनके ग्रामीण क्षेत्रों में गैनों की संख्या सूचित नहीं की गई है। किसी स्थान विशेष की कुल जन संख्या के अनुपात में जैनों की संख्या के आधार पर प्रदेश के जिलों में झांसी जिला, नगरों में मुजफ्फरनगर तथा ग्रामीण क्षेत्रों में झांसी जिले का ग्रामीण क्षेत्र अग्रणी स्थान रखते हैं।
इन आंकड़ों से एक बात स्पष्ट है कि जैनी जन पूर्वी भाग की अपेक्षा इस राज्य के पश्चिमी भाग में अपने को केन्द्रित किये हुये हैं। सम्पूर्ण भारत के रंगमंच की भी यही स्थिति है। पश्चिमी भारत ही इनका मुख्य गढ़ है । अतः हमारा राज्य भी उसका अपवाद कैसे बनता ?
सन् १९६१ ई० की जनगणना के समय उत्तर प्रदेश राज्य की कुल जन संख्या ७,३७,४६,४०१ थी और उसमें जैनों की संख्या १,२२,१०८ अर्थात् ०.१७ प्रतिशत थी। यद्यपि सन् १९६१ ई० से सन् १९७१ ई० के मध्य दस वर्षों में प्रदेश की जन संख्या में १९.८२ प्रतिशत की वृद्धि हुई, प्रदेश की जैनों की जन संख्या में केवल २.१५ प्रतिशत ही रही । उससे पूर्व १९५१ से १९६१ की जनगणना के मध्य यह वृद्धि २४.९३% थी। जन संख्या में बृद्धि होने की दर में इस भारी कमी के परिलक्षित होने का कारण इस अवधि में जैनों का धर्म परिवर्तन, प्रदेश से बर्हिगमन अथवा उनकी मृत्युदर का बढ़ना नहीं है, अपितु राष्ट्रीय कार्यक्रम परिवार नियोजन में सक्रिय योग देकर जन्मदर घटाने का स्तुत्य प्रयास प्रतीत होता है। यह भी संभव है कि जनगणना कर्मचारियों की अनभिज्ञता अथवा असावधानीवश तथा कहीं-कहीं स्वयं जैनों द्वारा इस मामले में बरती गई उदासीनता के कारण प्रगणकों द्वारा उनमै से अनेकों को भ्रमवश हिंदू धर्मानुयायियों में लिख लिया गया हो और उनकी सही गणना न हो पाई हो। इस संभावना का आधार यह है कि कई स्थानों पर जनगणना रिपोर्ट में दिखाये गये आंकड़ों से अधिक संख्या में जैनी जन पाये जाते हैं।
भगवान महावीर की परम्परा के अनुयायी ये श्रावक आज उनके निर्वाण के ढाई सहस्र वर्ष बाद भी उनके जीवन से प्रेरणा ग्रहण करते हुए और उनके उपदेशों के यकिंचित् अनुपालन का प्रयास करते हुए एक सदनागरिक का आदर्श उपस्थित करते हैं । अपनी स्वल्प संख्या और सीमित संसाधनों के साथ वे अपने धर्म और समाजों की ही नहीं, सम्पूर्ण प्रदेश और देश की भी सर्वतोमुखी उन्नति के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। यही कारण है कि ये श्रमणोपासक समग्र भारतीय समाज में एक सम्माननीय स्थान प्राप्त किये हए हैं।
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