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ख --- ६
अन्तेवासी व्यग्रता से निवेदन करते हैं- "आर्य श्रेष्ठ ! अग्निदेव रुष्ट हैं । बलि का समय निकला जा रहा । यज्ञ भंग हो रहा । यजमान पशु लाने में असमर्थ हैं ।"
पौष्करसादि - - प्रसेनजित के राज्य में अग्निदेव शान्त रहेंगे। यज्ञ विधि-पूर्वक होगा । अग्नि को पंच- पशु की बलि मिलेगी । यजमान पशु प्रस्तुत करें ।
यजमान ( सामूहिकनाद ) - "विप्र श्रेष्ठ ! क्षमा करें। आज हाट खाली है। एक बकरा भी नहीं हैं। सभी पशु श्रेष्ठ मृगार ने प्रत्यूष काल में ही क्रय करके बन्धन मुक्त कर दिये ।”
पौष्करसादि - - " असम्भव ! श्रेष्ठि मृगार धार्मिक है, धर्म कार्य में बाधा नहीं देगा ।"
एक यजमान --"हाँ महाराज । वह कहता है पशुओं को बन्धन मुक्त करना धार्मिक है ।"
(श्रेष्ठि मृगार अपने अनुचरों के साथ यज्ञ भूमि में आता है । पालकी से उतर कर विनयपूर्वक विप्र श्रेष्ठ को नमस्कार करता है और निवेदन की आज्ञा चाहता है । विप्र श्रेष्ठ उठकर उसको "तथास्तु" कहते हैं और आसन देते हैं ।)
श्रेष्ठि मृगार - "विप्र श्रेष्ठ ! आपकी शंका का निवारण मेरे शास्ता कर सकते हैं। कल ही वह नगर के बाहर विहार करते हुए आये हैं । अग्निदेव को नैवेद्य अर्पण करें, वह प्रसन्न होंगे । यज्ञ-कार्य में व्यवधान न होने दें ।"
पौष्क रसादि - "श्रेष्ठि ! तू धार्मिक है । मैं तेरे शास्ता से अभी मिलना चाहता हूँ ।"
( अन्तेवासियों से ) - "घृत - नैवेद्य से अग्निदेव को शान्त करो । मंत्रोच्चार जारी रखो।”
( २ )
मृगार और पौष्करसादि बस्ती से बाहर वन प्रखण्ड के समीप एक तेजस्वी पुरुष को [ पद्मासन लगाये ध्यानमुद्रा में निमग्न देखते हैं । उसकी दृष्टि नासाग्र है और आँखें अधखुली हैं। अपने चतुर्दिक वातावरण से वह अलिप्त है और आत्मलीन है ।
श्रेष्ठि और विप्र श्रेष्ठ उसके सामने जाकर उसे नमस्कार करते हैं। वह तपस्वी उनकी शंका जानता है और नमस्कार के उत्तर में कहता है
असत्थं सव्वओ सव्यं, विस्स पाणे पियामए । न हणं पाणिनो पाने, भय-वेराम्रो उवरए ॥
तब पौष्किरसादि विचार करता है - "सभी प्राणियों में एक जैसी आत्मा है और सभी प्राणियों को अपनाअपना जीवन प्यारा लगता है । इसलिये भय और बैर की भावना का परित्याग कर किसी प्राणी को न तो मारा जाय और न तो उसे किसी प्रकार का कष्ट ही दिया जाये ।"
मृगार - "हे विप्र श्रेष्ठ ! मेरे शास्ता तीर्थंकर महावीर की वाणी तुमने सुनी और उसे विचारा । यज्ञ-कर्म में पशु बलि धार्मिक नहीं है ।"
पौष्करसादि - " श्रेष्ठि ! साधु-साधु ! अब मैं घृत-नैवेद्य से ही अग्नि को प्रसन्न करूंगा । मेरी शाला में पशु बलि नहीं होगी ।"
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