________________
ख-४
समक्ष रखी तब उसे कौन ग्रहण कर सकेंगे इसका विचार उन्होंने नहीं किया, किंतु इतना ही सोचा कि काल निरवधि है और पृथ्वी विशाल है, कभी न कभी तो कोई उसे समझेगा ही। जिसे गहनतम स्पष्ट प्रतीति होती है वह अधीर होकर ऐसा नहीं सोचता कि मेरी प्रतीति को तत्काल ही लोग क्यों नहीं समझ जाते ।
महावीर ने आचारांग नामक अपने प्राचीन उपदेश ग्रन्थ में बहुत सरल ढंग से अपनी बात उपस्थित की है और कहा है कि प्रत्येक को जीवन प्रिय है, जैसा कि स्वंय हमें अपना जीवन प्रिय है। भगवान की सरल सर्व ग्राह्य दलील ही है कि मैं आनंद और सुख चाहता हूँ। इसी से मैं स्वंय हूँ। तो फिर इसी न्याय से आनंद और सुख चाहने वाले दूसरे भी प्राणी हैं । ऐसी स्थिति में ऐसा कैसे कहा जाय कि मनुष्य में ही आत्मा है, पशु पक्षी में ही आत्मा है, और दूसरे में नहीं है ? कीट और पतंग अपने ढंग से सुख की खोज करते नजर आते हैं, किंतु सूक्ष्मतम वानस्पतिक जीव सृष्टि में भी संतति-जनन और प्रोषण की प्रक्रिया अगम्य अगम्य रूप से चलती रहती है। उन्होंने समस्त विश्व में अपने समान ही चेतन तत्व को उल्लसित देखा। उसे धारण करने वाले, पुष्ट करने वाले शरीर और इन्द्रियों के आकार प्रकार कितना ही अन्तर क्यों न हो, कार्य शक्ति में भी अन्तर हो, फिर भी तात्विक रूप में सर्वव्यापी चेतन तत्व एक ही प्रकार का विलसित हो रहा है। भगवान की इस जीवनदृष्टि को हम आत्मौपम्य-दृष्टि कह सकते हैं। हम सब जैसे तात्विक रूप से हैं वैसे ही छोटे बड़े सभी प्राणी हैं। जो अन्य प्राणी रूप में हैं वे भी कभी न कभी विकास क्रम में मानव भूमिका को स्पर्श करते हैं। और मानव भूमिका को प्राप्त जीव भी कभी अवक्रान्ति क्रम में अन्य प्राणी का स्वरूप प्राप्त करते हैं। इस तरह उत्क्रान्ति और अवक्रान्ति का चक्र चलता ही रहता है। किंतु उससे मूल चैतन्य के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं पड़ता। जो होता भी है वह व्यवहारिक हैं।
भगवान की आत्मौपम्य-दृष्टि में जीवन शुद्धि की बात आ ही जाती है । अज्ञात काल से चेतन का प्रकाश कितना भी आवृत क्यों न हुआ हो, उसका आविर्भाव न्यूनाधिक हो, फिर भी उसकी शक्ति पूर्ण विकास पूर्ण, शुद्धि ही है। यदि जीवन तत्व में पर्ण-शुद्धि की शक्यता न हो तो आध्यात्मिक साधना का कुछ भी प्रय जिस देश में सच्चे आध्यात्मिक अनुभवी हुये हैं, उन सबकी प्रतीति एक जैसी ही है कि चेतन तत्व वस्तुतः शुद्ध है, वासना और लेप से पृथक है । शुद्ध चैतन्य के ऊपर जो वासना या कर्म की छाया पड़ती है वह उसका मूल स्वरूप नहीं है । मूल स्वरूप तो उससे भिन्न ही है । यह जीवन शुद्धि का सिद्धांत है । जिसे हमने आत्मौपम्य की दृष्टि कहा और जिसे जीवन शुद्धि की दृष्टि कहा, उसमें वेदान्तियों का ब्रह्माद्वैतवाद या बौद्धों का विज्ञानाद्वैतवाद या वैसे ही दूसरे केवलाद्वैत, शुद्धाद्वैत जैसे वाद समाविष्ट हो जाते हैं, भले ही सांप्रदायिक परिभाषा के अनुसार उनका भिन्न २ अर्थ होता है।
यदि तत्वत: जीव का स्वरूप शुद्ध ही हैं तो फिर हमें उस स्वरूप को पुष्ट करने और प्राप्त करने के लिये क्या करना है ? यह साधना-विषयक प्रश्न उपस्थित होता है। भगवान महावीर ने उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है कि जब तक जीवन व्यवहार में आत्मौपम्य की दृष्टि और आत्म शुद्धि की सिद्धि मूलक परिवर्तन नहीं होता, तब तक उक्त दोनों बातों का अनुभव नहीं हो सकता। इसे जैन परिभाषा में चरण-करण कहते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org