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ख-४
[ ३१ ___ महावीर, बुद्ध (६२४-५४४ ई. पू.) के समकालीन थे। उनका जन्म विहार प्रान्त के वैशाली नगर में ऐसे कुल में हुआ था जिसका सम्बन्ध मगधनरेश बिम्बिसार (श्रेणिक ) महान से था। उनकी आयु ७२ वर्ष की हुई, उनके निर्वाण की तिथि सामान्यतया दीपावली, ५२६ ई. पू. मान्य की जाती है । उतके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का त्रिशलादेवी था। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार, किन्तु जिसे दिगम्बर परम्परा मान्य नहीं करती है, महावीर का विवाह यशोधरा के साथ हुआ था और उनसे एक पुत्री भी हुई थी। कुछ इतिहासकार यह मानते हैं कि बुद्ध का निर्वाण ४८४ ई. पू. में और महावीर का ४८२ ई. पू. में हुआ था।
३० वर्ष की आयु में महावीर ने सब कुछ त्याग दिया, अन्यतम आवश्यकता की वस्तुएं भी । वह पूर्णतया एवं सर्वथा निष्परिग्रही, निर्ग्रन्थ हो गये। अगले १२ वर्ष उन्होंने गम्भीर चिन्तन दुद्धर तपश्चरण और योग साधना में व्यतीत किये । कल्पसूत्र के अनुसार १३वें वर्ष में "जब वह एक शाल वृक्ष के नीचे गोदोहन आसन से बैठे हुए, शरीर पर सूर्य का आतप सह रहे थे, अढ़ाई दिन पर्यन्त अन्न एवं जल का त्याग कर उपवास रह चुके थे, गहरे ध्यान में रत थे, तो उन्होंने ज्ञान एवं दर्शन की वह चरमावस्था प्राप्त की जो केवलज्ञान कहलाती है, और जो अनन्त, सर्वोपरि, निराबाध, अप्रतिहत, सार्व और पूर्ण थी।" इस प्रकार ४२ वर्ष की आयु में वह अर्हत हो गये, अर्थात अपने मन-वचकाय के पूर्ण आत्मविजेता हो गये । कहा जाता है कि ऐसी अवस्था में व्यक्ति संसार के समस्त जीवों की समस्त दशाओं को, वे समय विशेष में क्या सोचते हैं, क्या बोलते हैं, करते हैं, प्रत्यक्ष जानता देखता हैं । अर्हत उस सर्वोपरि, सर्वोच्च रहस्य को जानता है कि "मैं' क्या हूँ, हमारी इस आत्मा का क्या स्वरूप है, हम कहाँ से आते हैं, कहाँ जाते हैं, आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में प्रशिक्षित हम लोगो को अजीब, बिल्कुल समझ में न आने वाले, बल्कि अवास्तविक भी लगते हैं। और यह बात भी सर्वथा आश्चर्यजनक और अविश्वसनीय लगती है कि कोई ऐसा व्यक्ति हो सकता है जो उनके उत्तर जानता है, और वह भी मात्र ध्यान के द्वारा । किन्तु मात्र अनोखपन के कारण ही सर्वोच्च बुद्धि एवं सत्यता सम्पन्न आत्मविजय एवं करुणा में अद्वितीय महापुरुषों के स्वानुभव में अविश्वास करना (उनके वैयाकतिक साक्ष्य में अविश्वास करना विज्ञान की आत्मा की हत्या करना होगा।
शिष्य परम्परा में पीढ़ी दरपीढ़ी/मौखिक/द्वार से चले आये महावीर के उपदेश सर्वप्रथम सम्भवतया उनके निर्वाण के १००० वर्ष बाद देवद्धिगणी के निर्देशन में वल्लभी की वांचना (४५४ ई.) में लिपिबद्ध हुए थे।
जैनधर्म के ५ मुख्य सिद्धान्त या व्रत हैं। प्रथम, किसी भी अस या स्थावर छोटे या बड़े प्राणी को किसी प्रकार की पीड़ा देना या उसकी हत्या करने का त्याग- व्यक्ति को मनवच कायसे सब प्रकार की हिंसा का त्याग करना, दूसरों से भी हिंसा न करानी, और न ही उसके लिए अनुमति देना या उसका अनुमोदन करना । दूसरा सिद्धान्त है, क्रोध लाभ अथवा भय के कारण बोले जाने वाले समस्त झूठ या असत्य का त्याग । शेष तीन में परिप्रह, इन्द्रियविषय और ममत्व को त्याग है। एक जैन मुनि को इन पांचों सिद्धान्तों या व्रतों का पूर्णतया एवं सर्वथा पालन करना होता है। गृहस्थजनों को उनका पालन अपनी परिस्थितियों के अनुसार यथासंभव
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