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जैन दर्शन की व्यापकता
-डा० गोकुलचन्द्र जैन
जैन दर्शन के विषय में जब मैं बात करता हूं तो मेरे सामने एक महान व्यक्तित्व उभर कर आता है। यह व्यक्तित्व है वर्धमान महावीर का। महावीर ने जैन दर्शन के सिद्धान्तों को जो व्याख्या ही, उससे जैन दर्शन मानवीय जीवन मूल्यों के साथ अनिवार्य रूप से संपृक्त हो गया। मुझे तो स्पष्ट दिखाई देता है कि महावीर के बाद इन ढाई हजार वर्षों में जैन दर्शन के सिद्धान्तों का व्यापक प्रसार हुआ है। उसने न केवल भारतीय जीवन को प्रत्युत विश्वचिन्तन को व्यापक रूप से प्रभावित किया है।
सिद्धान्तों की बात कहने से पहले यह जान लेना उपयुक्य होगा कि यह दर्शन कहां से प्रतिफलित हआ।
धर्म के चौबीसवें और अन्तिम तीर्थंकर माने जाते हैं। उनके साथ तीर्थकरों के चिन्तन की एक दीर्घकालिक परम्परा जुड़ी है । सुदूर अतीत की वह कड़ी अब भी इतिहास की पकड़ के बाहर है । पुरातत्व और साहित्यिक अनुसन्धानों से जो तथ्य सामने आये हैं, उनसे इतना तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि इतिहास पूर्व में भी चिन्तन की दो धाराएं प्रवाहित होती रही हैं। इन्हें श्रमण और ब्राह्मण विचारधारा कहा गया। ब्राह्मण परम्परा के प्रवर्तक वैदिक ऋषि थे। श्रमण परम्परा ऋषभ द्वारा प्रवर्तित हुई। प्राचीन वाङ्मय में वातारशन मुनियों, व्रात्यों और केशी श्रमणके जो विवरण मिलते हैं, वे स्पष्ट रूप से श्रमण संस्कृति से सम्बद्ध ज्ञात होते हैं। ऋषभ ने ध्यान और कायोत्सर्ग की कठोर साधना की थी। मोहन-जो-दरों तथा हड़प्पा के उत्खनन में प्राप्त कायोत्सर्ग प्रतिमाओं का सम्बन्ध इसी परम्परा से प्रतीत होता है।
ऋषभ को जैन धर्म का प्रथम तीर्थकर माना गया है। उनके जीवन के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो जाती है । ऋग्वेद में ऋषभ के उल्लेख मिलते हैं। श्रीमद्-भागवत में उनका चरित्न वर्णित है। जैन वाङ्मय में तो पूरा विवरण प्राप्त होता ही है। उनके बाद के तीर्थंकरों के जीवन के सम्बन्ध में अभी तक विशेष सामग्री प्रकाश में नहीं आ पायी, इसीलिए कई लोग उनकी ऐतिहासिकता के विषय में सन्देह व्यक्त करते हैं। जो भी हो, यह सच है कि इतिहास की पकड़ अभी बहुत गहरी नहीं है। इसलिए जब तक खोजें जारी हैं तब तक मेरी समझ में हमें सूत्र रूप में प्राप्त सन्दर्भो को भी नकारना नहीं चाहिए। भारत में अभी इन तीर्थंकरों के जीवन और साधना से सम्बद्ध स्थान तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
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