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प्राकतिक भोजन : शाकाहार
भगवान ऋषभदेव ने त्रस्त मानव को वाण देने के लिए पुरुषार्थ और समाज-व्यवस्था का महामन्त्र दिया। उन्होंने कहा-"हाथों का उपयोग केवल खाने के लिए मत करो, उत्पादन और उर्पाजन के लिए भी करो ।" तब मनुष्य के मन में श्रम के प्रति उच्च भावना जगी। वह खेती करके पैदा करने लगा व श्रम के द्वारा उपार्जन करने लगा। इस प्रकार उपभोक्ता और उत्पादन में सन्तुलन कायम हुआ। शान्ति स्थापित हुई, सभी का जीवन आनन्दपूर्वक व्यतीत होने लगा।
कर्मयुग में भी जब मनुष्य की लालसा बढ़ी तब वह उसकी पूर्ति के लिए एक-दूसरे पर दबाव डालने लगा और परस्पर झगड़ने लगा। वह पाषाण और काष्ठ के हथियार बनाकर उनका आक्रामक और रक्षात्मक दोनों प्रकार से उपयोग करने लगा। निशाना ठीक बैठे और प्रहार खाली न जाय इसके लिए उसने पशु-पक्षियों पर अभ्यास करना शुरू कर दिया तथा क्रूर बनकर उनका भक्षण भी करने लगा। इस प्रकार शुरुआत हुई मांस-भक्षण की।
मनुष्य स्वार्थ में यहां तक निर्दयी हो गया कि जिन पशुओं से वह कर्मयुग में सेवा लेने लगा था, उन्हीं को वह मारने, सताने और आधा पेट खाने को देने लगा। तब वे भक्ष्य-अभक्ष्य जो कुछ मिलता उसे खाने लगे। गौ को माता कहने वाले और उसकी रक्षा का शोर मचाने वाले उसका दूध निचोड़ कर उसे लावारिस बनाकर छोड़ देते हैं और वह गन्दे चिथड़े, विष्ठा खाते और गन्दी नालियों का पानी पीते देखी जाती हैं। तभी तो आज से पांच हजार वर्ष पूर्व कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने गोपालन और गौसेवा का व्यापक आन्दोलन छेड़ा था। वे स्वयं ग्वाला बने । कितने हैं आज कृष्ण और महावीर के भक्त जो गऊ को पालते-पोसते हैं ? उनका काम तो केवल उसका दूध पी लेना है। ऐसे लोग भी गोहत्या और बूचड़खानों के लिए कम दोषी नहीं हैं।
विषधर सर्प मिट्टी, पवन और दूध पर अपना निर्वाह कर लेता है। दीवान अमरचन्द जी के हाथों भूखा शेर जलेबी खा गया । नारायणी (राजस्थान) में जब गुरु गोविन्द सिंह पधारे तब सन्त दादू के डाले जुआर-बाजरा के दाने उनके बाज ने बड़े चाव से पेट भर खाये। यदि ये जीव प्रकृति स्वभाव से मांस-भक्षी होते तो जलेबी और जुआर कैसे खा लेते ? बर्नार्ड शा ने एक शाही भोज में मांस खाने को पेट में जानवरों का कब्रिस्तान बनाना कहा था। अजरबेजान (रूस) के १६८ वर्षीय शिराली मिसालिनोव ने शाकाहार और मदिरा ग्रहण न करने को अपने दीर्घ और चुस्त जीवन का रहस्य बतलाया ।।
जैन मनीषियों ने आज से सदियों पूर्व आहार के सम्बन्ध में जो प्राकृतिक खोज की, वह आज की वैज्ञानिक दृष्टि से भी सही और खरी उतरी है । कोन सी चीज खानी चाहिए, कौन सी चीज नहीं और क्यों ? एवं उनके गुण और दोष विस्तार से बतलाये हैं। कौन सी चीज कितने समय तक खाने योग्य रहती है और किसमें किसका मिश्रण करने से विष बन जाता है ? आदि सूक्ष्म बातों तक का उन्होंने विशद वर्णन किया है । इसके फलस्वरूप विश्व का विवेकशील तबका मांसाहार त्यागकर शाकाहार की ओर आ रहा है।
___ मनुष्य ने ही पशु-पक्षी को मांस आदि गन्दे पदार्थ खाने के लिए मजबूर किया। मनुष्य द्वारा उनका शिकार किये जाने के फलस्वरूप ही वे जिन दांतों और पंजों को हमला होने पर अपना बचाव करने के काम में लाते थे उनसे वे खुद हमला करने लगे और दांतों में खून का स्वाद लगने से मांस-भक्षी हो गये । यदि वे स्वभाव से हिंसक होते तो बिल्ली और शेरनी अपने शावकों को जब उन्हीं दांतों से दबाकर उठा लेती हैं और उन्हीं पंजों से पूचकारती और थपथपाती है तब वे दाँत इतना बोझ उठाने पर भी क्यों नहीं गड़ जाते तथा उनके खूख्वार पंजे क्यों नहीं उनका अनिष्ट कर देते ?
मनुष्य में स्वार्थ बुद्धि, परिग्रहप्रेम और अपने जीवन के लिए दूसरों के जीवन का खात्मा कर डालना आदि कुछ ऐसी कुत्सित और दूषित मनोवृत्तियां घर कर गईं कि उसने मांस भक्षण की शुरुआत की ओर निरीह पशुओं को भी ऐसा करने के लिए विवश किया । जबकि वास्तव में शाकाहार ही प्राणी का प्राकृतिक और स्वाभाविक भोजन था और है।
-प्रतापचन्द जैन, प्रागरा
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