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उत्तर प्रदेश के जैन तीर्थ एवं साँस्कृतिक केन्द्र
" सिद्धक्षेत्रे महातीर्थे पुराणपुरुषाधिते ।
कल्याणकलिते पुण्ये ध्यान सिद्धिः प्रजायते ॥" -- ज्ञानार्णवः
अमरकोषकार ने 'निपान-आगमयोस्तीर्थम् ऋषि जुष्टे जलेगुरी' सूत्र द्वारा 'तीर्थ' शब्द के अनेक अर्थ किये हैं । मूलतः सागरतीरवर्ती वह स्थान अथवा नदी का वह घाट जहाँ से उसे पार किया जाता है, 'तीर्थ' कहलाता है । अतएव जो तिरादे या पार करा दे, अथवा तिरने या पार हो जाने में जो सहायक हो, साधक हो वही 'तीर्थ' है । प्रतीकार्थ में, जिस धर्मशासन के आश्रय से जन्म-मरण रूप दुःखार्णव से पार होकर समस्त आत्मविकारों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है, उसे भी 'तीर्थ' कहते हैं, और तब वह 'धर्म' का पर्यायवाची होता है । उस धर्म - तीर्थ के प्रवर्त्तक, उद्धारक एवं व्यवस्थापक 'तीर्थंकर' कहलाते हैं । वे तथा उनके अनुसर्त्ता, मोक्षमार्ग के एकनिष्ठ साधक मुनि, आर्यिका आदि गुरु जंगमतीर्थ कहलाते हैं - इसीलिए उन्हें 'तिन्नाणं तारयाणं' अर्थात् तरण तारण कहा जाता है । उनसे सम्बद्ध भूमियाँ, स्थल आदि स्थावर तीर्थ कहलाते हैं ।
ऋषभादि चौवीस तीर्थंकरों में से अंतिम, वर्धमान महावीर के उदय से पूर्व प्रबुद्ध जगत में एक बेचैनी थी, जिसकी अभिव्यक्ति पार्श्वपरम्परा के महावीरकालीन केशिमुनि के शब्दों में ध्वनित है
अंधियारे तमे घोरे, चिट्ठति पाणिणो बहू । को करिस्सेइ उज्जोयं सव्व लोगंमि पाणिणं ॥
और उसका उत्तर महावीर के प्रधान शिष्य, गौतम गणधर ने तत्काल दिया थाउगओ विमलो माणू, सव्वलोगप्पमकरो | सो करिएसइ उज्जोयं, सव्व लोगंमि पाणिणं ॥ !
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और समस्त लोक के हृदय को आलोकित करने वाला वह विमल भास्कर थानिस्संसयकरो महावीरो जिणुत्तमो ।) रागबोस- भयावीवो धम्मतीत्थस्सकारओ || !
इस प्रकार, महावीर प्रभृति तीर्थंकरों ने सर्वज्ञ- वीतराग सर्वहितंकर बनकर धर्म तीर्थ की स्थापना द्वारा प्राणियों के अभ्युदय एवं निःश्रेयस का पथ प्रशस्त किया था। डूबती उतराती चेतनाओं से ओत-प्रोत विश्व-प्रवाह को अपनी साधना से काटकर जो आत्मानुभूति में स्थित हो रहता है, ऐसा परम साधक और सिद्ध ही तीर्थंकर होता है
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