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उतने अन्यत्र नहीं हैं। पउमचरिउ, पद्मपुराण, स्वयंभू रामायण, आदिपुराण, उत्तरपुराण, वृहत्कथाकोष, तिलकमंजरी, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पंपरामायण विविधतीर्थकल्प आदि जैन ग्रन्थों के अनेक पृष्ठ तीर्थकरों की इस जन्मभूमि की प्रशंसा में रंगे पड़े हैं। देवों द्वारा निर्मित, शत्रुविहीन, विनीत सभ्यों का निवासस्थान, भव्य भवनों से सुशोभित, सुनियोजित, भारतवर्ष के मध्य देश का शिरोभूषण, वसुंधरा की मुकुटमणि, समस्त आश्चर्यों का निधान (सर्वाश्चर्य निधानमुत्तर कौसलेष्वयोध्येति यर्थाथभिधाना नगरी-धनपालकृत तिलकमंजरी) यथानाम तथा गुण इस परम पावन आद्यतीर्थस्थली अयोध्या का महात्म्य बखानते जैन ग्रन्थकार अघाते नहीं और धार्मिक जन इसकी यात्रा का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए सदा लालायित रहते आये हैं।
महावीर निर्वाण के लगभग एक सौ वर्ष पश्चात मगधनरेश नन्दिवर्धन ने इस नगर में मणिपर्वत नामक उत्तुंग जैन स्तूप बनवाया था, जिसकी स्थिति वर्तमान मणिपर्वत टीला सूचित करता है। मौर्य सम्राट सम्प्रति और वीर विक्रमादित्य ने इस क्षेत्र के पुराने जिन मंदिरों का जीर्णोद्धार एवं नवीनों का निर्माण कराया था। गुजरात नरेश कुमारपाल चौलुम्य (सोलंकी) ने भी यहां जिनमंदिर बनवाये बताये जाते हैं। दसवीं-ग्यारहवी शती ई० में यहाँ जैन धर्मावलंबी श्रीवास्तव्य कायस्थ राजाओं का शासन था, जिन्होंने सैयद सालार मसउद गाजी को, जो अवध प्रान्त पर आक्रमण करने वाला संभवतया सर्व प्रथम मुसल्मान था, वीरता पूर्वक लड़कर खदेड़ भगाया था। सन् ११९४ ई. के लगभग दिल्ली विजेता मुहम्मद गोरी के भाई मखदूमशाह जूरन गोरी ने अयोध्या पर आक्रमण किया और ऋषभदेव जन्मस्थान के विशाल जिनमंदिर को ध्वस्त करके उसके स्थान पर मसजिद बना दी, किन्तु स्वयं भी युद्ध में मारा गया और उसी स्थान पर दफनाया गया जो अब शाहजूरन का टीला कहलाता है। उसी टीले पर,
पीछे की ओर, आदिनाथ का एक छोटा सा जिनमंदिर तो थोड़े समय पश्चात ही पुनः बनगया किन्तु चिरकाल तक उसका चढ़ावा अयोध्या के बकसरिया टोले में रहने वाले शाहजूरन के वंशज ही लेते रहे।
सन् १३३० ई. के लगभग जैनाचार्य जिनप्रभसूरि ने दिल्ली के सुलतान मुहम्मद बिन तुगलुक से फर्मान प्राप्त करके संघ सहित अयोध्या तीर्थ की यात्रा की थी। उन्होंने अपने विविधतीर्थकल्प के अन्तर्गत अयोध्यापुरीकल्प में लिखा है कि उस समय वहाँ जन्म लेने वाले पांचों तीर्थकरों के मंदिरों के अतिरिक्त, राजा नाभिराय (ऋषभदेव के पिता) का मंदिर, पार्श्वनाथ की बाड़ी, चक्रेश्वरी (ऋषभदेव की यक्षि) की रत्नमयी प्रतिमा, इसके संगी गोमुख यक्ष की मूर्ति, सीताकुंड, सहस्त्रधारा, स्वर्गद्वार आदि जैनधर्मायतन विद्यमान थे, तथा नगर के प्राकार पर मत्तगयंद यक्ष का निवास था, जिसके आगे उस समय भी हाथी नहीं आते थे, जो आते भी थे वे तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे।
१५२८ ई० में मुगल बादशाह बाबर ने अयोध्या पर आक्रमण करके रामकोट में स्थित रामजन्मस्थान के मंदिर को तोड़ कर मसजिद बनाई लौर उपरोक्त जैन मंदिरों में से भी कुछ को तुड़वाया लगता है। अकबर के उदार शासन में अयोध्या में जैन और हिन्दू मंदिरों का पुनः निर्माण हुआ और तीर्थयात्री भी आने लगे। वस्तुतः मध्यकाल में अयोध्या तीर्थ की यात्रार्थ आनेवाले अनेक जैन यतियों, मुनियों, भट्टारकों, अन्य त्यागियों एवं गहस्थों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। नगर के मुहल्ला कटरा में एक टोंक में एक जैन महात्मा के चरणचिन्ह स्थापित हैं, जिन पर अंकित लेख से विदित होना है कि वहाँ सीतल नाम के दिगम्बर जैन मुनिराज ने समाधिमरण किया था, जिसकी स्मृति में ब्रह्मचारी मानसिंह के पुत्र ने बैसाख सुदी ८ सोमवार, संवत् १७०४ (सन् १६४७ ई०-शाहजहाँ के राज्यकाल) में उक्त चरणचिन्हों को प्रतिष्ठापित किया था। यह सीतलमुनि वही प्रतीत होते हैं जो कविवर बनारसीदास के समय में आगरा पधारे थे। स्वयं बनारसीदास अपनी युवावस्था में अपने कई साथियों सहित जौनपुर
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