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[ ३५ शती के प्रारम्भ से मुसलमानों का अधिकार हो गया, और श्रावस्ती खंडहर होती चली गयी, किन्तु एक महत्वपूर्ण 'धर्म-पत्तन' (त्रिकांड शेष में श्रावस्ती का यह नाम दिया है) के रूप में चलती रही ।
१४ वीं शती ई० के पूर्वार्ध में प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनप्रभसूरि ने ससंघ श्रावस्ती की यात्रा की थी और अपने श्रावस्तीनगरी-कल्प में उसका वर्णन किया---'अगण्य गुणगण वाले दक्षिणार्ध भारत में कुणाला विषय (जनपद) की श्रावस्ती नगरी अब 'महेठ' कहलाती है । यहां आज भी गहन घन वन के मध्य श्री सम्भवनाथ विभूषित, गगनचुम्बी शिखर एवं पाश्वंस्थित जिनबिम्बमण्डित देवकुलिका से अलंकृत, प्राकार परिवृत्त, जिनालय विद्यमान है। उस चैत्य के द्वार से अनतिदूर वल्लि-उल्लसित, अतुल्य पल्लवों की स्निग्ध छाया वाले तथा बड़ी बड़ी शाखाओं वाले अभिराम रक्त-अशोक वृक्ष दीख पड़ते हैं। इस जिनालय की प्रतोली के कपाट-सम्पुट मणिभद्र यक्ष के प्रभाव से सर्यास्त होते ही स्वयमेव बन्द हो जाते हैं और सूर्योदय के साथ ही खल जाते हैं। सुलतान अलाउदीन (खलजी) के सर्दार मलिक हवस ने बहराइच से यहां आकर मन्दिर के प्राकार, दीवारों, कपाटों तथा अनेक जिन प्रतिमाओं को भग्न कर डाला था। श्रावस्ती तीर्थ में यात्री संघ के आने पर स्नान महोत्सव के समय चैत्य शिखर पर एक चीता आकर बैठ जाता है, जो किसी को भय नहीं करता और मंगलदीप होने पर स्वतः चला जाता है।' इसी नगर में पूर्वकाल में कौशाम्बी राज्य के मन्त्रीपुत्र कपिल ने अपने पिता के मिन इन्द्रदत्त से शिक्षा प्राप्त की और शालिभद्र सेठ की दासी के वचनों से प्रभावित हो तप किया, पांच सौ दस्युओं को प्रतिबोध दिया और सिद्धि प्राप्त की। जामालि-निन्हव भी इसी नगर के तिर्दुक उद्यान में हुआ था, और वहीं पार्श्वपरम्परा के प्रतिनिधि के शिमुनि और महावीर के गणधर गौतम के बीच इतिहास प्रसिद्ध संवाद हुआ था। स्कन्दाचार्य, भद्रमुनि, ब्रह्मदत्त आदि कई प्रसिद्ध मुनियों का सम्बन्ध इस नगर से रहा । जिनप्रभसूरि कहते हैं कि 'इस प्रकार अनेक संविधानक रत्नों की उत्पत्ति रूप इस श्रावस्ती महातीर्थ की भूमि रोहणाचल जैसी है।'
इसके उपरान्त शनैः शनैः यह तीर्थ खंडहरों से भरे वनखण्ड में परिणत होता गया। सन् १८६२ ई० में जनरल कनिंघम ने यहां पुरातात्त्विक सर्वेक्षण एवं खुदाई प्रारम्भ की। प्रारम्भ में विद्वानों को इस स्थान के श्रावस्ती होने में सन्देह रहा, किन्तु १८७५ ई० में डा० हे द्वारा एक शिलालेख की तथा १९०९ में सर जान मार्शल द्वारा एक ताम्रपत्न की प्राप्ति ने यह तथ्य असंदिग्ध कर दिया कि 'सहेट-महेट' ही प्राचीन श्रावस्ती है ।
स्वयं जैनों को तो अपने इस पवित्र तीर्थ की स्थिति में कोई सन्देह नहीं रहा और वे उसे उसी रूप में मानते आ रहे हैं। महेठ के जैन भग्नावशेषों में अनेक प्राचीन मनोज्ञ जिन प्रतिमाएं मिली हैं जिनमें से कुछ तो दिल्ली, लखनऊ, मथुरा आदि के राज्य संग्रहालयों में पहुंचगई और कुछ बहराइच के जिन मन्दिरों में। नवीन मन्दिर एवं धर्मशाला बन जाने से यात्रियों की सुविधा एवं आकर्षण पर्याप्त बढ़े हैं, किन्तु धराशायी होते जा रहे प्राचीन सम्भवनाथ मन्दिर के जीर्णोद्धार एवं सुरक्षा और उसके आस-पास प्राचीन जैन कलावशेषों की विधिवत खोज की आवश्यकता है। बौद्ध संस्थान एवं स्मारकों के कारण यह स्थान देश-विदेश के पर्यटकों को भी आकर्षित करता है।
कौशाम्बी
उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले की तहसील मंझनपुर परगना किरारी में, इलाहाबाद नगर से लगभग ५० कि० मी० दक्षिण-पश्चिम में, यमुना नदी के उत्तरी तट पर स्थित कोसम इनाम और कोसम खिराज नाम के संयुक्त महालों (गांवों) से प्राचीन इतिहास प्रसिद्ध महानगरी कौशाम्बी की पहिचान की गई है। इलाहाबाद से सराय आकिल तक पक्की सड़क है जिस पर मोटर बसें चलती हैं, उससे आगे कच्ची सड़क है जिस पर तांगे द्वारा
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