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के क्षेत्र में फैले हैं, और ये खण्डहर ही 'पारसनाथ किला' नाम से प्रसिद्ध हैं । इनमें से मुख्य बड़े टीले पर एक सुदृढ़ प्राचीन दुर्ग के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं और विशेषरूप से यह किला ही पारसनाथ - किला कहलाता रहा है ।
इस स्थान की व्यवस्थित रूप से पुरातात्विक शोध-खोज तो अभी नहीं हुई है, किन्तु जितनी कुछ भी हुई उसके फलस्वरूप यहां से अनेक खंडित अखंडित तीर्थंकर प्रतिमाएँ, कलापूर्ण तीर्थंकर पट्ट, मानस्तम्भ, जिनमूर्तियों से अलंकृत दरवाजों के सिरदल, तथा अन्य अनेक कलाकृतियां प्राप्त हुई हैं । एकाकी तीर्थंकर प्रतिमाओं में भगवान पार्श्वनाथ की एक विशालकाय भग्न प्रतिमा है जो बढ़ापुर गांव में प्राप्त हुई थी, तथा तीर्थंकर ऋषभदेव, सम्भवनाथ, चन्द्रप्रभु, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, और महावीर की भी प्रतिमाएँ हैं । एक खण्डित किन्तु अत्यन्त कलापूर्ण शिलापट्ट पर केन्द्र में एक तीर्थंकर पद्मासनस्थ हैं । उसके बायें ओर कोष्ठक में दो खड्गासन तीर्थंकर प्रतिमाएं हैं जिनमें से एक सप्तफणालंकृत है बतएव निश्चित रूप से तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा है । दूसरी सम्भव है नेमिनाथ की हो। दायें भाग में उसी प्रकार दो प्रतिमाएँ होंगी, किन्तु वह भाग टूट गया है । पूरा पट्ट पंचजिनेन्द्र पट्ट अथवा पंचबालयति पट्ट रहा होगा । एक अन्य अत्यन्त कलापूर्ण पट्ट पर मध्य में कमलांकित आसन पर भ० महावीर विराजमान हैं, उनके एक ओर नेमिनाथ की तथा दूसरी ओर चन्द्रप्रभु की खड्गासन प्रतिमाएँ हैं । उत्फुल्ल कमलों से मंडित प्रभामंडल, सिर के ऊपर छत्ततय, आजू-बाजू सुसज्जित गजयुगल, कल्पवृक्ष, चौरीवाहक, मालावाहक, पीठ पीछे कलापूर्ण स्तम्भ, कुबेर, अम्बिका आदि से समन्वित यह मूत्तकन अत्यन्त मनोज्ञ एवं दर्शनीय हैं। पट्ट के पादमूल में एक पंक्ति का लेख भी है- 'श्री विरद्धमान सामिदेव सम १०६७ राणलसुत भरत प्रतिमा प्रठपि । लेख की भाषा अपभ्रष्ट संस्कृत अथवा प्राकृत जैसी और लिपि ब्राह्मी है ।
प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी ने इसे वि० सं० १०६७ अर्थात सन् १०१० ई० का अनुमान किया है । किन्तु लेख को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि संभव है वह महावीर निर्वाण संवत् हो, जिसके अनुसार यह लेख एवं प्रतिमापट्ट सन् ५४० ई० का होना चाहिए। लेख की भाषा और लिपि भी ११वीं शती की न होकर गुप्तोत्तर काल, ६-७वीं शती की जैसी प्रतीत होती है । इस स्थान से गंगा-यमुना की मूर्ति युक्त द्वार की चौखट के अंश भी मिले हैं, जिनका प्रचलन गुप्तकाल में हुआ था । गुप्त शैली की अन्य कई कलाकृतियां भी इस स्थान में प्राप्त हुई हैं । अतएव यह स्थान गुप्तकाल जितना प्राचीन तो है ही, और ११-१२वीं शती तक यहां अच्छी बस्ती रही प्रतीत होती है । ये विविध तथा उनके जैन कलाकृतियां, कई जैन मन्दिरों के तथा एक अच्छे जैन अधिष्ठान (मठ
या विहार) के चिन्ह यह सूचित करते हैं कि गुप्तोत्तर काल में यह स्थान एक समृद्ध एवं प्रसिद्ध जैन केन्द्र रहा होगा । इस स्थान से प्राप्त तीर्थंकर प्रतिमाएँ भी सभी दिगम्बर हैं, जैसा कि मध्यकाल से पूर्व प्रायः सभी जिनप्रतिमाएँ होती थीं । पूर्वोक्त बढ़ापुर वाली विशालकाय पार्श्व प्रतिमा धरणेन्द्र - पद्मावती समन्वित हैं, उसका घटाटोप
मण्डल भी दर्शनीय है और सिंहासन पर भी सर्प की एड़दार कुंडलियां दिखाई गई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पारसनाथ - किला के मुख्य जिनप्रासाद की मूलनायक प्रतिमा यही होगी, और जिस समय यह प्रतिष्ठित की गई होगी उस समय तक भ० पार्श्वनाथ के उपसर्ग की घटना तथा इस स्थान के साथ भी उनका सम्बन्ध रहे होने की बात स्थानीय जनता की स्मृति में सुरक्षित थी । सम्भव है कि भ० पार्श्वनाथ के समय से ही यह स्थान उनके नाम से प्रसिद्ध हो चला हो ।
ऐसा प्रतीत होता है कि अहिच्छत्रा से विहार करके स्थान पर पुनः आये थे । वहाँ उनका समवसरण तो आया ही
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तीर्थंकर पार्श्वनाथ निकटवर्ती बिजनौर जिले के इस लगता है, केवलज्ञान के पूर्व हस्तिनापुर से पारणो
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