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मूर्ति तथा चतुर्भुजा चक्रेश्वरी की मूर्ति, टीले-डी. पर मृगलांछन तीर्थंकर शान्तिनाथ चौबीसी-पट (खंडित), नाभिरायमरुदेवी की पूर्वोक्ता जैसी मूर्ति (ऐसी मूत्तियाँ अहिच्छत्रा, मथुरा, देवगढ़ आदि अन्य जैन केन्द्रों में भी प्राप्त हुई हैं); टीले जी. एनं एच. पर भी जैन मन्दिरों के कुछ अवशेष मिले थे; टीले-जे. पर एक छोटा सा प्राचीन जैन मन्दिर प्रायः सुरक्षित था जहां, कनिंघम के कथनानुसार, अग्रवाल श्रावक, बनिये और साहुकार पटना, गोरखपुर आदि आस-पास के जिलों से दर्शनार्थ बहुधा आते रहते थे। इस मन्दिर में वृषभलांछन तीर्थंकर ऋषभनाथ की नील पाषाण की विशाल एवं मनोज्ञ पद्मासनस्थ प्रतिमा तब विद्यमान थी-प्रतिमा के सिर के ऊपर त्रिछत्र, पीछे भामंडल, इधर-उधर देवदुन्दुभि आदि परिकर अंकित थे। लोग भ्रमवश इस प्रतिमा को 'नाथ' या पार्श्वनाथ नाम से जानते थे । वस्तुतः, मन्दिर के बाहर एक खंडित प्रतिमा पार्श्वनाथ की भी थी, जो सम्भवतया मूलत: मंदिर की मूलनायक रही हो किन्नु किसी कारण खण्डित हो जाने से उसे बाहर पधरा दिया गया और वेदी में ऋषभनाथ की प्रतिमा विराजमान कर दी गई। इस टीले पर पूर्वोक्त जैसी एक युगलिया मूर्ति भी पाई गई थी। टीला-के. पर विशाल भवनों के अवशेष पाये गये औरटीला-एन. पर 'जुगवीर' (युगवीर) नाम से प्रसिद्ध एक मूर्ति मिली थी, जो संभवतया भगवान महावीर की होगी। टीला-जेड. पर अनेक भग्नावशेष प्राप्त हुए, जिनमें से एक तीर्थंकर की गन्धकूटी में विराजित सर्वतोभद्र प्रतिमा का था, और सम्भवतया भगवान पुष्पदंत का ही स्मारक हो।
कनिघम साहब ने स्वीकार किया था कि उन्होंने खुखन्दों का केवल प्राथमिक ऊपरी सर्वेक्षण किया था और भग्नावशेषों को देखते हए वहाँ विपूल पुरातात्त्विक सामग्री मिलने की संभावना है, और यह कि नालन्दा के अतिरिक्त थोड़े ही स्थान ऐसे होंगे जहाँ काकंदी जैसी सामग्री मिले। कनिंघम के उक्त सर्वेक्षण की रिपोर्ट १८७१ ई० में प्रकाशित हुई थी । तब से और भी जैन अवशेष वहाँ निकलते रहे हैं, किन्तु उचित सुरक्षा के अभाव में पुरानी कलाकृतियाँ लुप्त भी होती रही हैं। कनिंघम के अनुसार जनता में खुखुन्दों के ये टीले 'देउरा' नाम से प्रसिद्ध थे, और यह नाम जिनमंदिरों के लिए विशेषरूप से प्रयुक्त होता है।
अस्तु, तीर्थंकर की जन्मभूमि, कल्याणकभूमि, जैन संस्कृति का प्राचीन केन्द्र और कलाधाम काकंदी, उपनाम खुखुन्दों, एक अच्छा पर्यटक स्थल बन सकता है यदि वहाँ समुचित उत्खनन, खोज, अवशेषों की सुरक्षा एवं जिनका संभव हो उनके जीर्णोद्धार का प्रयत्न किया जाय और गाँव को रेल स्टेशन से जोड़ने वाले मार्ग को पक्का करा दिया जाय ।
सिंहपुरी
११वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ के जन्मस्थान सिंहपुरी या सिंहपुर की पहचान वाराणसी नगर से लगभग १० कि० मी० उत्तर की ओर स्थित सारनाथ (सारङ्गनाथ) अपरनाम इसिपत्तन (ऋषिपत्तन) से की जाती है। इसी सिंहपुर में इक्ष्वाकुवंशी नरेश विष्णु की वल्लभा रानी नन्दा के गर्भ से फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन तीर्थंकर श्रेयोनाथ या श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ था। चिरकाल राज भोग कर उन्होंने नगर के निकटवर्ती मनोहर नामक उद्यान में तप किया और वहीं केवलज्ञान प्राप्त किया था। सिंहपुरी (सारनाथ) में तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का एक विशाल एवं दर्शनीय जिनमंदिर विद्यमान है, जहाँ सैकड़ों यात्री दर्शनार्थ आते रहते हैं । मन्दिर के निकट ही सारनाथ के सुप्रसिद्ध बौद्ध स्तूप, बुद्धमंदिर, विहार आदि अवस्थित हैं।
इसी सिंहपुर में राजा सिंहसेन के समय में उत्तरपुराण में वर्णित भद्रमित्र और सत्यघोष की कथा घटित
हुई थी।
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