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पूर्व इस नाम के (अयोध्या, जूथिया आदि) नगर बसे । परन्तु इस नगर से सम्बंधित उक्त विभिन्न धर्मों की अनुश्रुतियों एवं उनके साहित्यों में प्राप्त इसके उल्लेखों से प्रतीत होता है कि इस नगर का मूलतः सम्बंध जैन परम्परा के साथ ही रहा ओर उसकी तत्सम्बंधी मान्यताएँ ही प्रकारान्तर से उक्त अन्य धर्मों की अनुश्रुतियों में अल्पाधिक प्रतिबिम्बित हुईं।
जैन मान्यता के अनुसार अयोध्या एक शाश्वत तीर्थ है। प्रत्येक कल्पकाल में सर्वप्रथम इसी नगर का देवताओं द्वारा निर्माण होता है और यहीं उस कल्पकाल के चौबीसों तीर्थंकरों का जन्म होता है। वर्तमान कल्पकाल में भी जिस स्थान पर अयोध्या विद्यमान है, वहीं चौदह में से विमलवाहन आदि सात कुलकरों या मनुओं ने जन्म लिया था और अपने समकालीन मानवों का पथ प्रदर्शन किया था। अंतिम मनु नाभिराय अपनी संगिनी मरुदेवी के साथ यहीं निवास करते थे, और यहीं उनके पुत्र, आदि-तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म हुआ था, जिनके अपरनाम आदिदेव, आदिनाथ, आदिपुरुष, स्वयंभु, प्रजापति, पुरुदेव, कश्यप और इक्ष्वाकु थे। इन्हीं के जन्म के उपलक्ष्य में देवराज इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने भारतवर्ष की इस आद्य नगरी का निर्माण किया था। मनुपुत्र ऋषभदेव इक्ष्वाकु ही इस नगर के प्रथम नरेश थे, और इसी नगर में उन्होंने मानवों को लोकधर्म एवं आत्मधर्म का सर्वप्रथम उपदेश दिया था। उनके उपरान्त हुए अन्य २३ तीर्थंकरों में से २२ उन्हीं के इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न हुए थे, जिनमें से अजितनाथ, अभिनन्दनाथ, सुमतिनाथ और अनन्तनाथ, क्रमशः दूसरे, चौथे, पांचवे और चौदहवें तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान नामक चार-चार कल्याणक अयोध्या में ही हुए। इस प्रकार अयोध्या इस कल्पकाल के पांच तीर्थंकरों की जन्मभूमि रही।
ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत इस महादेश के प्रथम चक्रवर्ती संम्राट थे और उन्हीं के नाम पर देश का भारतवर्ष नाम प्रसिद्ध हुआ-इस विषय में जैन एवं ब्राह्मणीय पुराण प्रन्थ एकमत हैं। अनुश्रुति है कि भगवान ऋषभदेव के निर्वाणोपलक्ष में भरत चक्रवर्ती ने अयोध्या में एक उत्तुंग सिंह-निषद्या निर्माण कराई थी तथा नगर के चारों महाद्वारों पर २४ तीर्थंकरों की निज-निज शरीर प्रमाण प्रतिमाएं स्थापित की थीं—पूर्व द्वार पर ऋषभ और अजित की, दक्षिण द्वार पर संभवादि चार की, पश्चिम द्वार पर सुपाादि आठ की, और उत्तर द्वार पर धर्मनाथादि देश की। उन्होंने एक सौ स्तूप एवं जिनमंदिर भी इस नगर में निर्माण कराये थे। भरत के उपरान्त सुभौम, सगर, मघवा आदि कई अन्य चक्रवर्ती सम्राट भी अयोध्या में हुए और महाराज रामचन्द्र एवं लक्ष्मण जैसे शलाकापुरुषों को जन्म देने का श्रेय भी अयोध्या को ही है । रामचन्द्र दीक्षा लेने के बाद पद्ममुनि के नाम से प्रसिद्ध हुए और अर्हत् परमेश्वर बनकर मोक्ष गये । महारानी सीता की गणना जैन परम्परा की सोलह आदर्श महासतियों में है। यज्ञों में पशुबलि के प्रश्न को लेकर नारद और पर्वत के बीच राजा वसु की राजसभा में होने वाला विवाद भी एक अनुश्रुति के अनुसार अयोध्या में ही हुआ था। राजनर्तकी बुद्धिषेणा और प्रीतंकर एवं विचित्रमति नामक मुनियों की कथा का तथा अन्य अनेक जैन पुराण-कथाओं का घटनास्थल यह नगर रहा । अन्तिम तीर्थंकर महावीर अपने एक पूर्ण भव में भगवान ऋषभदेव के पौत्र एवं भरत चक्री के पुत्र मरीचि के रूप में अयोध्या में जन्म ले चुके थे, और
तीर्थकर महावीर के रूप में भी वह अयोध्या पधारे, यहां के सुभूमिभाग उद्यान में उन्होंने मुमुक्षुओं को धर्मामृत पान कराया तथा कोटिवर्ष के राजा चिलाति को जिनदीक्षा दी थी। उनके नवम गणधर अचलभव का जन्म भी अयोध्या में ही हुआ था।
वस्तुतः, प्राचीन कोसल महाराज्य अथवा महाजनपद का केन्द्र, प्राचीन भारत की दश महाराजधानियों एवं उत्तरापथ की पांच महानगरियों में परिगणित, अयोध्या अपरनाम साकेत, इक्ष्वाकुभूमि, विनीता, सुकोशला, कोशलपुरी, अवध या अवधपुरी के जितने सुन्दर, विशद और अधिक उल्लेख एवं वर्णन प्राचीन जैन साहित्य में प्राप्त हैं,
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