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इस प्रकार अयोध्या उस प्राचीन पावन स्थल की सूचक है जहाँ सदैव से तीर्थंकरों का जन्म होता रहा है, और भविष्य में भी होता रहेगा।
वर्तमान काल की अवसर्पिणी उसमें होने वाले कतिपय अपवादों के कारण हुंडावसर्पिणी कहलाती है। इसका चौथा काल लगभग २५०० वर्ष पूर्व इसके चौबीसवें तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर के निर्वाण के ३ वर्ष ८॥ मास पश्चात समाप्त हुआ था, और तब से पांचवा आरा या काल चल रहा है, जिस में अभी साढ़े अठारह हजार वर्ष शेष हैं । उक्त हंडा दोष के कारण उसकी चौबीसी में से केवल पांच तीर्थंकरों का जन्म अयोध्या में हआ, किन्तु शेष १९ में से १३ तीर्थंकरों का जन्म भी उत्तर प्रदेश के ही विभिन्न स्थानों, 'यथा श्रावस्ती, कौशाम्बी, वाराणसी, चन्द्रपुरी, काकंदी, सिंहपुरी, रत्नपुरी, हस्तिनापुर और शौरीपुर में हुआ। इस प्रकार वर्तमान काल के २४ तीर्थंकरों में से १८ को जन्म देने का सौभाग्य उत्तर-प्रदेश को ही है। उन सब का प्रधान कार्यक्षेत्र भी प्रायः यही प्रदेश रहा, यों शेष छः तीर्थंकरों का विहार भी इस प्रदेश में हुआ और उन्होंने अपने-अपने समय में यहां सद्धर्म का प्रचार किया। इस काल के चक्रवर्ती आदि अन्य शलाका पुरुषों में से भी अधिकतर इसी प्रदेश में हुए। जैन परम्परा की सोलह सतियों तथा अन्य विशिष्ट व्यक्तियों में से अनेक भी यहीं हए ।
कुलकर (मनु)-इस भू-भाग में वर्तमान अवसर्पिणी के प्रथम तीनों कालों में आदिम युग की स्थिति थी: जीवन अत्यन्त सरल, स्वच्छ, स्वतन्त्र, प्रकृत्याश्रित एवं भोगप्रधान था। तीसरे काल के अन्त के लगभग स्थिति में परिवर्तन हुआ, प्रकृति पर निर्भर करना पर्याप्त नहीं रहा, लोग भयभीत और शंकित होने लगे, तो उनका समाधान, मार्गदर्शन एवं नेतृत्व करने के लिए एक के बाद एक चौदह कुलकरों या मनुओं का यहीं प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने मनुष्यों को कुलों (जनों, समूहों या कबीलों) में संगठित किया, आवश्यक आदेश-निर्देश दिये, मर्यादाएं निर्धारित की और व्यवस्थाएं दीं। उन्हीं मनुओं की सन्तति होने के कारण इस देश के निवासी मानव कहलाए। इनमें से अन्तिम कुलकर नाभिराय थे, जिनके नाम पर इस देश का प्राचीनतम नाम अंजनाम प्रसिद्ध हआ। तीर्थकर युग
मावि तीर्थंकर ऋषम-नाभिराय की चिरसंगिनी मरुदेवी की कुक्षि से प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म चैत्र कृष्णा नवमी के दिन हुआ था। उनके जन्मस्थान, भारतवर्ष की सर्वप्रथम नगरी अयोध्या का देवताओं ने निर्माण किया था। वृषभनाथ, आदिनाथ, आदीश्वर, आदिब्रह्म, पुरुदेव, हिरण्यगर्भ, स्वयंभु, प्रजापति, इक्ष्वाकु, कश्यप आदि इनके अन्य अनेक नाम थे। अन्तिम दो नाम उनकी संतति के वंश एवं गोत्र-नामों के रूप में प्रचलित हुए । वयस्क होने पर उन्होंने पैतृक मानव कुलों की व्यवस्था अपने हाथ में ली और जनता को असि-मसि-कृषिशिल्प-वाणिज्य-विद्या नामक षटकर्मों द्वारा जीविकोपार्जन की शिक्षा देकर कर्मयुग एवं मानवी सभ्यता का ऊँ नमः किया। कहा जाता है कि सर्वप्रथम इन आदिपुरुष ने ही लोगों को खेती करना, इक्षु से रस निकालना व उसका भोज्य पदार्थ के रूप में उपयोग करना, आग जलाना, आग में अन्न भूनना-पकाना, मिट्टी के बर्तन बनाना, कपड़ा बुनना, ग्राम नगर आदि बसाना, सिखाया था। उन्होंने पुरुषों की बहत्तर और स्त्रियों की चौंसठ कलाओं का ज्ञान तत्कालीन जनता की बुद्धि, ग्रहणशीलता एवं लोकदशा के अनुरूप दिया बताया जाता है। समाज व्यवस्था के लिए उन्होंने मनुष्यों को उनके कर्म, रुचि एवं प्रवृत्ति के अनुसार क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र, इन तीन वर्षों में विभाजित किया। यह वर्णभेद वर्ण या प्रतिष्ठा के भेद का सूचक नहीं था, मान कर्मभेद सूचक था, और अपरिवर्तनीय भी - नहीं था। भगवान ऋषभ ने कच्छ और सुकच्छ की सुपुत्रियों नंदा (अपर नाम सुमंगला या यशस्वती) और सुनन्दा से विवाह करके समाज में सर्वप्रथम विवाह प्रथा प्रचलित की। इन पत्नियों से उनके अनेक पुत्र और ब्राह्मी एवं
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