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कौशाम्बी (इलाहाबाद जिले का कोसम) में हुआ था और पभोसा नाम की निकटवर्ती पहाड़ी पर उन्होंने तपस्या की थी तथा केवलज्ञान प्राप्त किया था। सातने तीर्थकर सुपार्श्व का जन्म स्थान वाराणसी नगरी के भदैनी क्षेत्र से चीन्हा जाता है। मथुरा के कंकाली टीले का प्राचीन देवनिर्मित जैन स्तुप इन्हीं तीर्थंकर के उक्त नगर में पधारने की स्मृति में मूलतः निर्मित हुआ माना जाता है। आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु के जन्म स्थान चन्द्रपुरी या चन्द्रावती की पहिचान वाराणसी से लगभग २३ कि. मी. पर गंगा के किनारे स्थित तन्नाम गांव से की जाती है । नौवें तीर्थंकर पुष्पदंत अपर नाम सुविधिनाथ की जन्मभूमि काकंदी (देवरिया जिले का खुखुन्दो) है। कुछ विद्वानों ने इन तीर्थंकर का समीकरण पौराणिक महाराज ककुदि या ककुत्स्थ के साथ किया है। तीसरे से नौवें पर्यन्त सात तीर्थकर इस प्रदेश में वैदिक धर्म और संस्कृति के उदय से पूर्व, सिन्धुघाटी सभ्यता के उत्कर्षकाल के समसामयिक रहे प्रतीत होते हैं। जैन अनुश्रुतियों से ऐसा इंगित मिलता है कि उनके उपरान्त, दशमें तीर्थंकर शीतलनाथ के समय से ब्राह्मण नैदिक संस्कृति का प्रभाव वृद्धिंगत हुआ। ग्यारहों तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म सिंहपुरी में हुआ था, जिसकी पहिचान वाराणसी के निकट सारनाथ क्षेत्र से की जाती है। तेरहवें तीर्थंकर विमलनाथ का जन्म काम्पिल्य (फरुखाबाद जिले का कम्पिल) में हुआ था। इनके समय में कई अन्य शलाका पुरुष भी इस प्रदेश में हए। चौदहमें तीर्थकर अनन्तनाथ का जन्म अयोध्या में हुआ, इनके समय में भी कई शलाकापुरुष हए । तीर्थंकर धर्मनाम कुरूवंशी थे और इनका जन्म रत्नपुरी (फैजाबाद जिले का रौनाई) में हुआ था। इनके समय में भी कई शलाकापुरुष हुए और थोड़े समय उपरान्त एक-एक करके मघवा एवं सनत्कुमार नाम के दो सूर्यवंशी चक्रवर्ती सम्राट अयोध्या में हुए। इसके पश्चात कुछ काल के लिए श्रमणधर्म एवं मुनिमार्ग का विच्छेद रहा बताया जाता है। तदनन्तर शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ नाम के तीन तीर्थंकर हस्तिनापुर (मेरठ जिले में) क्रमशः हुए। ये तीनों चन्द्रगंश की कुरुशाखा में उत्पन्न हए थे और अपने-अपने समय में चक्रवर्ती सम्राट भी रहे थे। इनके समय में फिर से जैनधर्म का उत्कर्ष इस प्रदेश में रहा। अरनाथ के निर्वाणोपरान्त सुभौम नामक चक्रवर्ती तथा नन्दी, पुण्डरीक एघं निशुंभ नाम के अन्य शलाकापुरुष इसी प्रदेश में हुए। सुभौम के प्रसंग में परशुराम और कार्तवीर्य सहस्रवाह के भीषण संघर्ष की जैन अनुश्रुति मिलती है। बीसमें तर्थकर मुनिसुव्रत के तीर्थ में हए अयोध्यापति रघुवंशी महाराज रामचन्द्र, उनके अनुज लक्ष्मण और महासती सीता आदि का जैन परम्परा में अत्यन्त सम्माननीय स्थान है। भगवान राम ने दीक्षा लेकर पद्ममुनि नाम से तपश्चर्या की, अर्हत् केवलि पद प्राप्त किया और अन्त में वह निर्वाण प्राप्त कर सिद्ध परमात्मा हुए। जैन पद्मपुराण अथवा जैन रामायणों में इन महापुरुषों के पुण्यचरित्र विस्तार के साथ वणित हैं। इसके कुछ समय उपरान्त हस्तिनापुर में मुनि विष्णुकुमार द्वारा बलिबंधन, सात सौ मुनियों की रक्षा एवं रक्षाबन्धन पर्व की प्रवृत्ति का प्रसंग आता है। इक्कीसमें तीर्थंकर नमिनाथ के तीर्थ में वत्सदेश की कौशाम्बी नगरी में जयसेन नाम का चक्रवर्ती सम्राट हुआ।
तीर्थकर अरिष्टनेमि-या नेमिनाथ (२२वें तीर्थकर) का जन्म हरिवंश की यादव शाखा में शोरिपुर में (आगरा जिले में बटेश्वर के निकट) हुआ था। उनकी जननी शिवादेवी और पिता यदुवंशी राजा शूरसेन के वंशज महाराज समुद्रविजय थे, जिनके अनुज वसुदेव अत्यन्त साहसिक एवं कामदेवोपम रूपवान थे। उनके साहसिक भ्रमणों एवं कार्यकलापों का रोचक वर्णन जैन हरिवंश पुराण में प्राप्त होता है। इन्हीं वसुदेव के पुत्र कृष्ण और बलराम थे, जो अपने समय के नारायण एवं बलभद्र संज्ञक शलाकापुरुष थे, बड़े शूरवीर, प्रतापी और विचक्षण बुद्धि थे। अपने प्रबल प्रतिद्वन्द्वी जरासंध के आतंक से त्रस्त होकर यादवगण शौरिपुर एवं मथुरा का परित्याग करके पश्चिमी समुद्रतटवर्ती द्वारिका नगरी में जा बसे थे। हस्तिनापुर के कुरुवंशी कौरव-पाण्डवों का पारस्परिक संघर्ष एवं कुरुक्षेत्र का सुप्रसिद्ध महाभारत युद्ध इसी काल की घटनाएं हैं। उस युग की राजनीति के प्रधान सूत्रधार नारायण कृष्ण ही थे। वे पाण्डवों के मित्र थे और उनकी विजय में प्रधान निमित्त हुए थे। यदि कृष्ण उस युग के
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