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१५५६-१७०७ ई०, लगभग १५० वर्ष का अकबर आदि चार बादशाहों का समय मुगल साम्राज्य का उत्कर्षकाल एवं स्वर्णयुग था। मध्यकालीन उत्तर प्रदेश के जैन धर्म का भी वह स्वर्णयुग था। उस काल में प्रदेश में अनेक प्रसिद्ध धर्मप्राण एवं लौकिक अभ्युदय प्राप्त करने वाले जैन हुए, जिनमें से कई विशेष उल्लेखनीय हैं। भटानियाकोल (अलीगढ़) से आकर अर्गलपुर (आगरा) में बसने वाले अग्रवाल जैन पासा साहु के सुपुत्र टोडर साहु सम्राट अकबर के कृष्ण मंगल चौधरी नामक एक उच्चपदस्थ अधिकारी के विश्वस्त मन्त्री थे। आगरा की शाही टकसाल के अधीक्षक थे। स्वयं सम्राट तक उनकी पहुँच थी। उनकी धर्मात्मा भार्या का नाम कसूम्भी था, और ऋषभदास, मोहनदास, रूपचन्द एवं लछमनदास नाम के चार सुयोग्य पुत्र थे। सारा परिवार धार्मिक, विद्यारसिक और दानशील था। साहु टोडर ने राजाज्ञा लेकर मथुरा नगर के प्राचीन जैन तीर्थ का उद्धार किया था, प्राचीन स्तूपों के जीर्ण-शीर्ण हो जाने के कारण वहां ५१४ नवीन स्तूप निर्माण कराये, द्वादश दिकपाल आदि की स्थापना की और १५७३ ई० में बड़े समारोह के साथ वहां प्रतिष्ठोत्सव किया जिसमें चतुर्विध संघ को आमन्त्रित किया था। आगरा नगर में भी उन्होंने एक भव्य जिनमंदिर बनवाया था, जिसमें १५९४ ई० में हमीरीबाई नाम की आत्मसाधिका ब्रह्मचारिणी रहती थी। मथुरातीर्थ के उद्धार के उपलक्ष्य में साहु टोडर ने पांडे राजमल्ल से संस्कृत में और पं० जिनदास से हिन्दी में 'जम्बूस्वामीचरित्र' की रचना कराई थी। उनके सुपुत्र साह ऋषभदास ने पंडित नयविलास से आचार्य शुभचन्द्र के 'ज्ञानार्णव' नामक प्रसिद्ध जैन योगशास्त्र की संस्कृत टीका लिखाई थी।
सम्राट अकबर के एक शाही खजांची, शाही टकसाल के एक अधिकारी तथा कृपापात्र अनुचर अग्रवाल जैन साहरनवीरसिंह थे, जिनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर सम्राट ने उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक जागीर प्रदान की थी। वहां उन्होंने सहारनपुर नगर बसाया, जिसकी शाही टकसाल के अध्यक्ष भी वही नियुक्त हुए। उन्होंने कई स्थानों में जैन मंदिर बनवाये । उनके पिता राजा रामसिंह भी राज्यमान्य व्यक्ति थे और सुपुत्र सेठ गुलाबराय भी।
कर्मचन्द बच्छावत बीकानेर राज्य के मन्त्री थे, किन्तु राजा रामसिंह किसी कारण उनसे रुष्ट हो गया तो वह आगरा सम्राट अकबर की शरण में चले आये और मृत्यु पर्यन्त यहीं रहे। सम्राट उनका बहुत मान करता था और मुख्यतया उन्हीं के माध्यम से उसका गुजरात के श्वेताम्बराचार्यों से सम्पर्क हुआ। आगरा के ओसवाल जैन सेठ हीरानन्द मुकीम अत्यन्त धनवान एवं धर्मात्मा सज्जन थे। शाहजादा सलीम (जहांगीर) के तो वह खास जौहरी
और विशेष कृपापात्र थे। सन् १६०४ ई० में वह सम्राट एवं शाहजादे की अनुमतिपूर्वक एक विशाल जैन यात्रा संघ समोद शिखर ले गये। इस संघ में अनेक स्थानों के जैन सम्मिलित हुए, जिनमें जौनपुर से पं० बनारसीदास के
बरगसेन जौहरी भी थे। बड़े ठाठ-बाट से यह तीर्थ यात्रा हुई, विपूल द्रव्य व्यय हुआ और पूरा एक वर्ष लग गया। जहांगीर के राज्याभिषेक के उपरान्त उनके उपलक्ष्य में सेठ हीरानन्द ने १६१० ई० में सम्राट को दरबारियों सहित अपने घर आमन्त्रित किया और बड़ी शानदार दावत दी। सेठ के आश्रित कवि जगत् ने इस समारोह का वड़ा आलंकारिक एवं आकर्षक वर्णन किया है। अगले वर्ष सेठ ने आगरा में यति लब्धिवर्धनसूरि से एक बिम्ब प्रतिष्ठा कराई। उनके पुत्र साह निहालचन्द्र ने भी १६३१ ई० में आगरा में एक प्रतिष्ठा कराई थी।
जहाँगीर के शासनकाल में ही आगरा में एक अन्य जैन धनकुबेर संघपति सबल सिंह मोठिया थे, जिनके राजसी वैभव और शाही ठाठ का पं० बनारसीदास ने आँखोदेखा वर्णन किया है । उससे प्रकट है कि उस काल के प्रमुख जैन साहूकार स्वयं मुगलों की राजधानी में भी कितने धन-वैभव सम्पन्न एवं प्रभावशाली थे। आगरा के जैन संघ की ओर से आचार्य विजयसेन को १६१० ई० में जो विज्ञप्तिपत्र भेजा गया था, उस पर वहां के जिन ८८ श्रावक-प्रमुखों और संघपतियों के हस्ताक्षर थे, उनमें सबलसिंह का भी नाम था। अन्य हस्ताक्षर करने वालों में वर्धमान कुँवरजी दलाल, जिनके साथ बनारसीदास आदि ने १६१८ ई० में अहिच्छता और हस्तिनापुर की यात्रा
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