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उस काल के शिलालेखों, फरमानों आदि के अतिरिक्त तत्कालीन जैन साहित्यकारों ने भी सम्राट की भूरि-भूरि प्रशंसा की है-पाण्डे राजमल्ल (१५७५ ई.) ने लिखा है कि 'धर्म के प्रभाव से सम्राट अकबर ने जजियाकर बन्द करके यश का उपार्जन किया है, हिंसक वचन उसके मुख से भी नहीं निकलते थे, जीवहिंसा से वह सदा दूर रहता था, अपने धर्म राज्य में उसने द्यूतक्रीड़ा और मद्यपान का भी निषेध कर दिया था क्योंकि मद्यपान से मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और वह कुमार्ग में प्रवृत्ति करता है।' पाण्डे जिनदास ने भी 'जम्बूस्वामीचरित्र' (१५८५ ई०) में अकबर की सुनीति और सुराज्य की प्रशंसा की। कवि परिमल ने 'श्रीपालचरित्र' (१५९४ ई०) में सम्राट की प्रशंसा, उसके द्वारा गोरक्षा के लिए किये गये प्रयत्नों, आगरा नगर की सुन्दरता, वहां जैनविद्वानों के सत्समागम और उनकी नित्य होने वाली विद्वद्गोष्ठियों का वर्णन किया है । विद्याहर्षसूरि ने 'अंजनासुन्दरीरास' (१६०४ ई.) में जैन गुरुओं के प्रभाव से सम्राट द्वारा गाय, भैंस, बैल, बकरी आदि पशुओं के बध का निषेध, पुराने कैदियों की बन्दीगृह से मुक्ति, जैन संतों के प्रति आदर भाव, दान-पुण्य के कार्यों में उत्साह आदि का उल्लेख किया है। महाकवि बनारसीदास ने अपने आत्मचरित्र में लिखा है कि जब जौनपुर में अपनी किशोरावस्था में उन्होंने सम्राट अकबर की मृत्यु का समाचार सुना था तो वह मूछित होकर गिर पड़े थे तथा जनता में सर्वत्न नाहि त्राहि मच गई थी।
सम्राट के मित्र एवं अमात्य अबुलफजल ने अपनी सुप्रसिद्ध 'आईने-अकबरी' में भी जैनों और उनके धर्म का विवरण दिया है। इस ग्रन्थ के निर्माण में उसने जैन विद्वानों का भी सहयोग लिया था-बंगाल आदि की राज्यवंशावली उन्हीं की सहायता से संकलित की गयी बताई जाती है। हीरविजयसूरि आदि कई जैन गुरुओं का उल्लेख भी उस ग्रन्थ में हआ है। फतेहपुर सीकरी के महलों में अपने जैन गरुओं के बैठने विशिष्ट जैन कलापूर्ण पाषाणनिमित छतरी बनवाई थी जो 'ज्योतिषी की बैठक' कहलाती है। 'आईने-अकबरी' में सम्राट अकबर की कुछ उक्तियाँ भी संकलित हैं जो उसके जीवदया, शाकाहार, सामाजिक नैतिकता आदि विषयक मनोभावों की परिचायक हैं। पूर्तगाली जेसुइट पादरी पिन्हेरो ने १५९५ ई० में अपने बादशाह को आगरा से भेजे गये पत्र में लिखा था कि अकबर जैनधर्म का अनुयायी हो गया है, वह जैन नियमों का पालन करता है, जैन विधि से आत्मचिन्तन और आत्माराधन में बहुधा लीन रहता है, मद्य-मांस और चूत के निषेध की उसने आज्ञा प्रचारित कर दी है, इत्यादि । स्मिथ आदि अनेक आधुनिक इतिहासकार भी स्वीकार करते हैं कि सम्राट अकबर जैनधर्म पर बड़ी श्रद्धा रखता था और जैनगुरुओं का बड़ा आदर करता था तथा यह कि उसके अहिंसा धर्म का पालन करने के कारण मुल्ला-मौलवी और अनेक मुसलमान सर्दार उससे असन्तुष्ट हो गये थे।
अस्तू, जैनधर्म के साथ इस सर्वधर्म समदर्शी उदार नरेश के क्या और कितने, कम या अधिक, सम्बन्ध रहे, यह विवादास्पद हो सकता है, तथापि जैन इतिहास में उसका उल्लेखनीय स्थान है, और वह इसलिए कि किसी भी जैनेतर, विशेषकर मुसलमान, सम्राट से जैनधर्म, जैन गरुओं और जैन जनता को उस यग में जो संरक्षण, पोषण और सन्मान प्राप्त हो सकता था वह सम्राट अकबर के शासनकाल में जितना हुआ, उतना किसी भी अन्य शासन काल में नहीं हुआ। यहां तक कहा जाता है कि कई स्थानों में उसने जिन मन्दिरों को तोड कर उनके स्थान में बनाई गयी मस्जिदों को भी तुड़वाकर फिर से जिन मन्दिर बनवाने की आज्ञा दे दी थी। स्वयं उत्तर प्रदेश के सहारनपुर नगर के प्रसिद्ध सिंधियान जैन मन्दिर के विषय में ऐसी ही किंवदंती है। इसमें सन्देह नहीं है कि मुगल सम्राट अकबर के समय में उत्तर प्रदेश में जैनधर्म भली प्रकार फल-फूल रहा था। प्रायः सभी प्रमुख नगरों एवं कस्बों में धनी जैनों की अच्छी बस्तियाँ थीं और उनके धर्मायतन विद्यमान थे।
अकबर के उत्तराधिकारी जहांगीर (१६०५-२७ ई.) ने सामान्यतया अपने पिता की धार्मिक नीति का अनुसरण किया, अपने पूरे जन्ममानस में, सप्ताह में प्रत्येक गुरुवार एवं रविवार के दिन और अपने राज्याभिषेक
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