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के दिन सम्पूर्ण राज्य में मांसाहार एवं प्राणिबध का निषेध कर दिया । यति मानसिंह को उसने 'युगप्रधान' उपाधि दी और उनके तथा अन्य जैन गुरुओं के साथ जब-तब दार्शनिक चर्चा भी करता था। उसके शासनकाल में प्रदेश में कई नवीन जिनमन्दिर भी बने, अपने धर्मोत्सव मनाने और तीर्थयात्रा करने की भी जैनों को स्वतन्त्रता थी। राजा भारमल, हीरानन्द मुकीम जैसे कई जैन सेठ सम्राट के कृपापात्र थे। ब्रह्मरायमल्ल, बनवारीलाल, विद्या कमल, ब्रह्मगुलाल, गुणसागर, त्रिभुवनकीर्ति, भानुकीर्ति, सुन्दरदास, भगवतीदास, कवि विष्णु, कवि नन्द, कवि जगत् आदि अनेक जैन साधु एवं गृहस्थ विद्वानों ने उस युग में निराकुलतापूर्वक साहित्य सेवा की, कवि जगत ने तो 'यशोधर चरित' में आगरा नगर की सुन्दरता, 'नृपति नूरदीशाहि' (जहांगीर) के चरित्र एवं प्रताप का तथा उसके सुख-शान्ति पूर्ण राज्य में हुए धर्मकार्यों का अच्छा वर्णन किया है । पण्डित बनारसीदास की विद्वद्गोष्ठी उस काल में आगरा नगर में जम रही थी और यह जैन महाकवि अपनी उदार काव्यधारा द्वारा हिन्दू-मुस्लिम एकता को प्रोत्साहन दे रहे थे तथा अध्यात्मरस प्रवाहित कर रहे थे । ऐसी अनुश्रुति है कि यह पण्डित प्रवर जौनपुर के नवाब चिनकलीचखां के हिन्दी-संस्कृत के शिक्षक रहे थे, और जहांगीर के उत्तराधिकारी शाहजहां (१६२८-५८ई०) के मुसाहब भी रहे तथा बहुधा उसके साथ शतरंज खेला करते थे। जब चित्तवृत्ति राज्यसम्पर्क आदि लौकिक कार्यों से और अधिक विरक्ति हई तो उन्होंने बादशाह की मुसाहबी से छद्री ले ली। उनकी विद्वदगोष्ठी उत्साह के साथ चलती रही, जिसमें उच्च कोटि के दसियों विद्वान सम्मिलित होते थे। दिल्ली, लाहौर, मुल्तान आदि सुदूरस्थ प्रमुख नगरों के जैन विद्वानों से भी इस सत्संग का सम्पर्क बना रहता था। श्वेताम्बर यति एवं दिगम्बर भट्टारक, ऐल्लक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी आदि राजधानी आगरा एवं प्रदेश में विचरते रहते थे। शीतल (या शान्ति) नामक एक नग्न जैन मुनि का भी उस काल में आगरा में आना पाया जाता है। संभवतया यह वही शीतलमुनि हैं जिनका १६४७ ई० में अयोध्या में समाधिमरण हुआ था-वहां एक टोंक में उनके लेखांकित चरणचिन्ह स्थापित हैं। उस काल में स्वयं बनारसीदास, भगवतीदास, पाण्डे हेमराज, पाण्डे रूपचन्द, पाण्डे हरिकृष्ण, भट्टारक कवि सालिवाहन, यतिलूणसागर, पृथ्वीपाल, वीरदास, कवि सधारू, मनोहरलाल, खरगसेन, रायचन्द्र, जगजीवन
| विद्वानों ने विपुल साहित्य सृजन किया। स्वयं पं० बनारसीदास के 'अर्धकथानक' (१६४१ ई.) नामक अद्वितीय आत्मचरित्र में तो तत्कालीन केन्द्रीय एवं प्रान्तीय व स्थानीय शासन, वाणिज्य-व्यापार, लोकदशा राज्य में जैनों की स्थिति आदि का सजीव चित्रण प्राप्त होता है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से भी अमूल्य है। उससे यह भी विदित होता है कि प्रदेश के अयोध्या, वाराणसी, मथुरा, हस्तिनापुर, अहिच्छा आदि जैन तीर्थों पर
गमनागमन होता रहता था, और प्रायः सभी नगरों में अल्पाधिक संख्या में अग्रवाल, ओसवाल, श्रीमाल आदि जैन सेठ एवं व्यापारी पाये जाते थे। आगरा, फिरोजाबाद, जौनपुर, खैराबाद, शाहजहांपुर, इलाहाबाद, मेरठ, इटावा, कोल (अलीगढ़), सहारनपुर, वाराणसी, आदि जैनों के अच्छे केन्द्र थे।
___ शाहजहां का उत्तराधिकारी औरंगजेब (१६५८-१७०७ ई०) कट्टर मुसलमान और धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त असहिष्ण था, अतएव उसके समय में राज्य की नीति में भारी परिवर्तन हुआ। किन्तु प्रायः सम्पूर्ण भारतवर्ष पर उसका प्रभुत्व था, उसकी शक्ति और समृद्धि सर्वोपरि थी, शासनतन्त्र भी सुदृढ़ रहा और सामान्यतया साम्राज्य के केन्द्रीय भागों में अराजकता नहीं थी। उसके शासनकाल में जैनों को भी पहले जैसी धार्मिक स्वतन्त्रता तो नहीं थी, फिर भी उपाध्याय यशोविजय, आनन्दघन, देवब्रह्मचारी, भैया भगौतीदास, जगतराय, शिरोमणिदास, जीवराज, लक्ष्मीचन्द्र, भट्टारक विश्वभूषण, सुरेन्द्र भूषण, कवि विनोदीलाल आदि श्रेष्ठ जैन साहित्यकार हुए। अलाहाबाद के निकट शहजादपुर के निवासी कवि विनोदीलाल ने तो 'श्रीपाल चरित्र' (१६९० ई०) में लिखा है कि 'इस समय औरंगशाह बली का राज्य है, जिसने स्वयं अपने पिता को बन्दी बनाकर सिंहासन प्राप्त किया था और चक्रवर्ती के समान समुद्र से समुद्र पर्यन्त अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया।'
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