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भरोसा न था। प्रदेश में उस काल में किसी भी तेजस्वी महात्मा, सन्त, समाज सुधारक या निस्पृह जननेता के हुए होने का पता नहीं चलता। लोगों की समस्त उच्च एवं शुभ या सद्प्रवृत्तियां लुंठित-कुंठित हो गई थीं। जनजीवन सत्त्वविहीन सा था । सार्वजनिक शिक्षा का अभाव, रूढ़िवादिता, संकीर्णता, अंधविश्वास और कुरीतियाँ प्रायः प्रत्येक समाज में घर कर गई थीं। प्रदेश की जैन जनता भी इन दुष्प्रभावों से अछूती नहीं बची। पंथवाद और साम्प्रदायिक वैमनस्य भी उभरने लगे।
जैनों की संख्या, समृद्धि और धार्मिकता पर भी विपरीत प्रभाव पड़े ही। तथापि प्रदेश के जिन नगरों, कस्बों और ग्रामों में वे बसे हुए थे, वहाँ-वहाँ बने भी रहे, और जब कभी तथा जहाँ-कहीं कुछ शान्ति या सुशासन रहा तो उन्होंने उसका लाभ भी उठाया। जब १७२२ ई. में सादतखाँ अवध का सूबेदार नियुक्त हुआ, जो अवध की नवाबी का संस्थापक भी हुआ, तो उसके साथ दिल्ली से उसके खजांची लाला केशरीसिंह भी साथ आये, जो अग्रवाल जैन थे। अयोध्या ही उस समय सूबे की राजधानी थी। उन्होंने १७२४ ई० में ही उक्त तीर्थ के पाँच प्राचीन जिनमंदिरों एवं टोंकों का जीर्णोद्धार कराया और इस आदि जैन तीर्थ के विकास एवं जैनों के लिए उसकी यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया। इस समय के लगभग झांसी जिले के निवासी मंजु चौधरी उड़ीसा प्रान्त के कटक नगर में जा बसे और थोड़े ही वर्षों में वहाँ अत्यधिक मान और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली। अवध के नवाब आसफूटौला (१७७५-१७९७ ई.) के समय में नवाब के खास जौहरी लखनऊ के ओसवाल जैन बच्छराज नाहटा थे जिन्हें नवाब ने 'राजा' की उपाधि दी थी। उसी समय खरतरगच्छाचार्य जिनअक्षयसूरि ने लखनऊ के सोंधी टोला स्थित यतिछत्ता में अपनी गद्दी स्थापित की और पार्श्वनाथ स्वामी का मन्दिर बनवाया, जो इस नगर का सर्वप्राचीन श्वेताम्बर मन्दिर है। दिगम्बर मन्दिर मच्छीभवन (लछमन टीला) के निकट, जहाँ विक्टोरिया पार्क है, पहले से ही विद्यमान था। राजा बच्छराज नाहटा आदि लखनऊ निवासी ३६ श्वेताम्बर श्रावक-श्राविकओं ने एक सचिन विज्ञप्तिपन भेज कर दिल्ली से भट्टारक जिनचन्द्रसूरि को भी आमन्त्रित किया था। सन् १८०० ई. के लगभग दिल्ली के शाही खजांची राजा हरसुखराय एवं उनके सुपुत्र राजा सुगनचन्द्र ने हस्तिनापुर तीर्थ का पुनरुद्धार किया
और वहाँ एक अति विशाल दिगम्बर जैन मन्दिर निर्माण कराया था। उन्होंने अन्य अनेक स्थानों में भी जिनमन्दिर बनवाये थे। प्रयाग (इलाहाबाद) के साह होरीलाल ने १८२४ ई० में कौशाम्बी के निकट प्रभास पर्वत (पभोसा) पर जिनमन्दिर बनवाया था। प्रायः इसी समय सहारनपुर के संस्थापक साह रनवीरसिंह के वंशज सालिगराम अंग्रेज सरकार की ओर से दिल्ली के खजांची नियुक्त हुए थे। मथुरा के प्रसिद्ध सेठ धराने का उदयकाल भी प्रायः यही है । इस घराने के प्रथम पुरुष सेठ मनीराम ने मथुरा के चौरासी टीले पर जम्बूस्वामी का मन्दिर बनवाया और नगर में द्वारकाधीश का सुप्रसिद्ध मन्दिर भी बनवाया। अलीगढ़ निवासी आध्यात्मिक संतकवि पं० दौलतराम जी का सेठ मनीराम बड़ा आदर करते थे और उन्हें कुछ समय अपने पास बुलाकर भी रखा था। मनीराम के सुपूत्र सेठ लक्ष्मीचन्द के समय में मथुरा का यह सेठ घराना अपने चरमोत्कर्ष पर था और वे अंग्रेजों द्वारा भी सम्पूर्ण भारत के अग्रणी साहूकारों में मान्य किये जाते थे। तदनन्तर, सेठ रघुनाथ दास एवं उनके पुत्र राजा लक्ष्मणदास के समय तक भी इस सेठ घराने की- आन-बान बहुत कुछ बनी रही। कलकत्ता के विश्वविश्रुत उद्यानमन्दिर (शीतलनाथ जिनालय) के निर्माता राय बद्रीदास मूलत: लखनऊ के ही निवासी थे जो १९वीं शती के मध्य के लगभग कलकत्ता जा बसे थे और वहीं जवाहरात का अपना पैतृक व्यापार अपूर्व सफलता के साथ चलाया था।
इस अराजकता काल में उत्तर प्रदेश में कई जैन विद्वान, साहित्यकार एवं कवि भी हुए, यथा हथिकन्त के भट्टारक विश्वभूषण, पं० जिनदास, पं. हेमराज (इटावा), कवि बुलाकीदास (आगरा), कविवर द्यानतराय
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