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का सम्मान किया बताया जाता है। इन आचार्यों ने, विशेषकर जिन प्रभसूरि ने सुलतान से फरमान प्राप्त करके संघसहित उत्तर प्रदेश के मथुरा, हस्तिनापुर आदि जैन तीर्थों की यात्रा की थी। उस काल की फारसी तवारीखों में जैनों का उल्लेख सयूरगान (सरावगान-श्रावक का अपभ्रन्श) नाम से हुआ है। फिरोज तुगलुक ने भी इन सयूरगान के पंडितों से अशोकस्तंभ-लेखों को पढ़ने में सहायता ली थी। इन स्तंभों में से एक तो वह सुलतान मेरठ से ही उठवाकर दिल्ली ले गया था।
१४२४ ई० में संघपति साहु होलिचन्द्र नामक धनवान, दानशील एवं धर्मात्मा श्रावक ने देवगढ़ आदि में अनेक जिनमन्दिरों का निर्माण कराया था और धर्मोत्सव किये थे। नन्दिसंघ के आचार्य प्रभाचन्द्र के प्रशिष्य
और आचार्य पद्मनन्दि के शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र उसके गुरु थे । उनकी प्रेरणा से उसने उक्त वर्ष देवगढ़ में मुनि वसन्तकीति और मुनि पद्मनन्दि की तथा कई तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित कराई थीं। उसके द्वारा किये गये धर्मोत्सवों में उसके स्वयं के पुत्र-पौत्रों आदि का तथा अन्य अनेक श्रावक श्रेष्ठियों का भी सहयोग रहा। देवगढ़ में १४३६ ई० में भी एक जिन मन्दिर-मूर्ति प्रतिष्ठा हुई थी।
आगरा के पूर्व-दक्षिण और ग्वालियर के उतर में, यमुना और चम्बल के मध्यवर्ती प्रदेश में असाईखेड़ा (जिला इटावा) के भरों का राज्य पूर्वकाल में था। असाईखेड़ा के भर जैन धर्मानुयायी थे, जैसा कि वहां से प्राप्त ९वी-१०वीं शती की जैन मूर्तियों एवं मन्दिरों के भग्नावशेषों से विदित होता है। उन भरों के उपरान्त चन्द्रपाल चौहान ने चन्द्रवाड़ (फिरोजाबाद) में अपना राज्य जमाया था। उसका तथा उसके निकट उत्तराधिकारियों और उनके जैन मंत्रियों का उल्लेख पीछे किया जा चुका है। चन्द्रपाल के इस चौहान राज्य में रायबद्दिय, रपरी, हथिकन्त, शौरिपुर, आगरा आदि अन्य प्रसिद्ध नगर या दुर्ग थे। कालान्तर (१५वीं-१६वीं शती) में अटेर, हथिकन्त और शौरिपुर (ये सब स्थान आगरा जिले में हैं) में नन्दिसंघ के दिगम्बर जैन भट्टारकों की गद्दियां भी स्थापित हो गई। चन्द्रवाड़ के चौहान नरेश बल्लाल के उत्तराधिकारी आहवमल्ल (लगभग १२५७) के समय में उसके पिता के मन्त्री सोडू साहु का ज्येष्ठ पुत्र रत्नपाल (रल्हण) राज्य का नगरसेठ था और कनिष्ठ पुत्र कृष्णादित्य (कण्ह) प्रधान मन्त्री एवं सेनापति था। दिल्ली के गुलामवंशी सुलतानों के विरुद्ध इस जैन वीर ने कई सफल युद्ध किये थे। उसने राज्य में अनेक जिनमन्दिरों का भी निर्माण कराया था और १२५६ ई० में त्रिभुवनगिरि (बयाना जिला) निवासी जैसवाल जैन कवि लक्ष्मण (लाखू) से अपभ्रंश भाषा में 'अणुव्रतरत्नप्रदीप' नामक धर्मग्रंथ की रचना कराई थी। कवि ने इस धर्मप्राण वीर राजमंत्री के सद्गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। कृष्णादित्य का भतीजा शिवदेव भी श्रेष्ठ विद्वान एवं कलामर्मज्ञ था और अपने पिता रत्नपाल के पश्चात् राज्य का नगरसेठ नियुक्त हुआ था। कई पीढ़ी पर्यन्त राज्यमान्य बना रहने वाला सम्पन्न एवं धर्मधुरन्धर सेठों और कुशल राज मंत्रियों का यह परिवार चन्द्रवाड़ के चौहान राज्य का प्रमुख स्तम्भ था। इस समय तक सम्भवतया रायवद्दिय मुख्य राजधानी रही और चन्द्रवाड़ उपराजधानी, तदनन्तर चन्द्रवाड़ ही मुख्य राजधानी हो गई। कहा जाता है कि चन्द्रवाड़ में ५१ जिनप्रतिष्ठाएं हुई थीं। राजा संभरिराय का मंत्री यदुवंशी-जैसवाल जैन साहु जसधर या जसरथ (दशरथ) था और राजा सारंगदेव का मंत्री दशरथ का पुत्र गोकर्ण था जिसने 'सूपकारसार' नामक पाकशास्त्र की रचना की थी। गोकर्ण का पुत्र सोमदेव राजा अभयचन्द (अभयपाल द्वितीय) तौर उसके उत्तराधिकारी जयचन्द का प्रधान मंत्री था । इसी काल में (१३७१या १३८१ ई० में) चन्द्रपाठदुर्ग निवासी महाराजपुत्र रावत गओ के पौत्र और रावत होतमी के पुत्र चुन्नीददेव ने अपनी पत्नी भट्टो तथा पुन साधुसिंह सहित काष्ठासंधी भट्टारक अनन्तकीर्तिदेव से एक जिनालय की प्रतिष्ठा कराई थी। राजा जयचन्द का उत्तराधिकारी राजा रामचन्द्र था जिसके प्रधान मन्त्री सोमदेव के पुत्र साहु बासाधर थे। उनके छह अन्य भाई तथा जसपाल, रत्नपाल, पुण्यपाल,
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