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चन्द्रपाल आदि आठ पुत्र भी सुयोग्य, धर्मात्मा एवं राज्य की सेवा में तत्पर थे। वासाधार की भार्या उदयश्री पतिव्रता, सुशील और चतुर्विध संघ के लिए कल्पद्रुम थी। स्वयं मन्त्रीश्वर वासाधर परम जिनभक्त, देवपूजादि षटकर्मों में रत, अष्टमूलगुणों के पालन में तत्पर, विशुद्ध चित्तवाले, परोपकारी, दयालु, उदारदानी, बहुलोक मित्र, राजनीति पटु एवं स्वामीभक्त थे। चन्द्रवाड़ में उन्होंने एक विशाल एवं कलापूर्ण जिनमन्दिर बनवाया था तथा अनेक पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया था। उन्होंने १३९७ ई० में गुजरात निवासी कवि धनपाल से अपभ्रंश भाषा में बाहुबलिचरित्न नामक काव्य की रचना कराई थी। यह कवि भट्टारक प्रभाचन्द्र के भक्त-शिष्य थे और उन्हीं के साथ तीर्थयात्रा करते हुए चन्द्रवाड़ आ पहुँचे थे। वासाधर ने उक्त प्रभाचन्द्र के पट्टधर दिल्ली-पट्टाचार्य भट्टारक पद्मनन्दि से संस्कृत भाषा में 'श्रावकाचारसारोद्धार' नामक ग्रंथ की रचना कराई थी। इस ग्रन्थ में वासाधर को लम्बकंचुक (लमेचु) वंशी लिखा है-सम्भव है कि जैसवालों की ही एक शाखा लमेचु नाम से प्रसिद्ध हई हो। इसी काल में चन्द्रवाड़ के पद्मावतपुरवाल जातीय धनकुबेर सेठ कुन्थुदास हुए, जिन्होंने राजा रामचन्द्र और उनके पुत्र रुद्रप्रताप के समय में अपनी अपार सम्पत्ति से राज्य की आड़े वक्त में प्रशंसनीय सहायता की थी। उन्होंने चन्द्रवाड़ में एक भव्य जिनालय बनवाकर उसमें हीरा, पन्ना, माणिक्य, स्फटिक आदि की अनेकों बहमूल्य प्रतिमाएं प्रतिष्ठित कराई थीं तथा अपभ्रंश भाषा के ग्वालियर निवासी महाकवि र ईन्धु से 'पुण्यास्रवकथा' एवं 'वेसठ-महापुरुष-गुणालंकार' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना कराई थी। राजा रुद्रप्रताप द्वारा सम्मानित चन्द्रवाड़ के एक अन्य जैन सेठ साह तोसउ के पुत्र साह नेमिदास थे जिन्होंने धातु, स्फटिक, मुंगे आदि की अनेक प्रतिमाएं बनवाकर प्रतिष्ठित कराई थीं।
इटावा जिले के करहल नामक स्थान में चौहान सामन्त राजा भोजराज का राज्य था। उसके मन्त्री यदुवंशी अमरसिंह जैनधर्म संपालक थे। उन्होंने १४१४ ई० में वहां रत्नमयी जिनबिंब निर्माण कराके महत प्रतिष्ठोत्सव किया धा । उनके चार भाई, पत्नी कमलश्री और नन्दन, सोणिग एवं लोणासाहु नाम के तीनों पुत्र भी उदार, धर्मात्मा और विद्यारसिक थे। विशेषकर साह लोणा मल्लिनाथचरित्र के रचयिता कवि जयमित्र हल्ल और 'पार्श्वनाथचरित्र' के कर्ता कवि असवाल के प्रशंसक एवं प्रश्रयदाता थे । उन्होंने १४२२ ई० में, भोजराज के पुत्र राजा संसारचंद (पृथ्वीसिंह) के शासनकाल में, अपने भाई सोणिग के लिए उक्त कवि असवाल से 'पार्श्वनाथ चरित्र' की रचना कराई थी।
१४वीं शती के अन्त और १५वीं के प्रारम्म में, लगभग दो दशक पर्यन्त दिल्ली में फिरोज तुगलक के अयोग्य वंशजों का शासन था, जिसे तैमूरलंग के लुटेरे आक्रमण (१३९८ ई०) ने ध्वस्त प्रायः कर दिया। उसने उत्तर प्रदेश के मेरठ आदि पश्चिमी जिलों को भी रौंद डाला था। तदनन्तर दिल्ली में लगभग : सैयद सुलतानों का और तत्पश्चात् पौन शती पर्यन्त लोदी सुलतानों का शासन रहा। इस काल में प्रायः सभी प्रांतों में स्वतन्त्र सुलतानी शासन स्थापित हो गये थे । उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में भी जौनपुर के शर्की सुलतानों का शासन था। इस काल से ही जौनपुर में जैन जौहरियों व व्यापारियों की अच्छी बस्ती थी। सुलतान महमूदशाह शर्की ने तो १४५० ई. के लगभग कर्णाटक के जैनाचार्य सिंहकीति को अपने दर्बार में सम्मानित भी किया प्रतीत होता है । दिल्ली के सुलतानों का शासन क्षेत्र बहुत संकुचित हो गया था, किन्तु बहुभाग उत्तर प्रदेश पर फिर भी उनका अधिकार बना रहा । इन सुलतानों में स्यात् सिकन्दर लोदी (१४८९-१५१७ ई०) सर्वाधिक शक्तिशाली था । उसने वर्तमान आगरा नगर बसाकर वहां दुर्ग बनवाया और उसे अपनी उपराजधानी बनाया। इसमें उसका मुख्य उद्देश्य आगरा के आसपास फैले चन्द्रवाड़, असाईखेड़ा, करहल आदि के चौहानों और अटेर, हथिकंत आदि के भदौरिया राजाओं को नियन्त्रण में रखना तथा दोआब की आय को सुरक्षित रखना था। सिकन्दर लोदी के राज्य
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