________________
ख - ६
[ ११
एक अन्य जिनप्रतिमा कोटेयगण की वेर शाखा के किसी साधु के उपदेश से वर्ष ९७ ( ४१६ ई० ) में, तथा एक अन्य वर्ष ११३ (४३२ ई० ) में सम्राट कुमारगुप्त के शासन काल में कोट्टिय गण की विद्याधरी शाखा के दतिलाचार्य के उपदेश से भट्टिभव की पुत्री और प्रातारिक गृहमितपालित की कुटुम्बिनी ( भार्या) शामाया ने प्रतिष्ठित कराई थी । गुप्त सं० १४१ (४६० ई०) में सम्राट स्कंदगुप्त के शासनकाल में ब्राह्मण सोमिल के प्रपौत, महात्मा भट्टिसोम के पौत्र यशस्वी रुद्रसोम के पुत्र, संसार चक्र से भयभीत पुण्यात्मा भद्र ने ककुभ ( गोरखपुर जिले का कहाऊँ) नामक स्थान में पञ्च- जिनेन्द्र स्तंभ की स्थापना की थी। इसी पांचवीं शती ई० के जैन शिलालेख राजगृह (विहार) की सोन भंडार गुफा ( लगभग ४०० ई० ) में, विदिशा (मध्यप्रदेश ) की उदयगिरि गुफा ( ४२५ ई० )
और पहाड़पुर ( बंगाल ) के ताम्रपत्र ( ४७९ ई०), आदि में प्राप्त हुए हैं। पहाड़पुर ताम्रपत्र से तो विदित होता है कि इस काल में काशि निवासी निर्ग्रन्थ श्रमणाचार्य गुहनन्दि विशेष प्रभावशाली थे - उत्तर प्रदेश ही नहीं, बिहार और बंगाल में भी उनके शिष्य-प्रशिष्य फैले थे । वह स्वयं पंचस्तूप निकाय के साधु थे । इस जैन संघ का निकास संभवतया हस्तिनापुर (जहां प्राचीन पांच जैन स्तूप थे ) अथवा मथुरा से हुआ था और कालान्तर में इसका विस्तार दक्षिण भारत के महाराष्ट्र, कर्णाटक एव तमिल प्रदेशों तक हुआ था । गुप्तकाल के जैन मंदिरों, मूर्तियों आदि के भाजन शेष उत्तर प्रदेश में मथुरा, हस्तिनापुर, देवगढ़, कहाऊँ, श्रावस्ती, कौशाम्बी, वाराणसी, अहिछता आदि में प्राप्त हुए हैं, जो उस काल में भी प्रसिद्ध केन्द्र रहे । सुप्रसिद्ध जैन तार्किक आचार्यं सिद्धसेन के भी इस प्रदेश में रहे होने की सम्भावना है ।
गुप्तत्तर काल में कन्नौज के प्रतापी सम्राट हर्षवर्धन ( ६०६- ६४७ ई०) का विशेष झुकाव यद्यपि बौद्ध धर्म की ओर था, वह प्रायः सर्वधर्म समदर्शी, विद्वानों का आदर करने वाला, उदार और दानी नरेश था । वह राजधानी कन्नौज तथा प्रयाग में जो आवधिक विद्वत्सम्मेलन किया करता था उनमें विभिन्न धर्मों के साधुओं एवं विद्वानों को आमन्त्रित करता था, जिनमें निर्ग्रन्थ (जैन) साधु और विद्वान भी होते थे । उन सबको वह दान-मान से सन्तुष्ट करता था । उसके शासनकाल में चीनी बौद्ध यात्री ह्वेनसांग इस प्रदेश में आया था, और उसके यात्रा वृत्तान्त से पता चलता कि प्रदेश के विभिन्न भागों में जैन साधु, उनके अनुयायी और देवायतन उस काल में विद्यमान थे । वीरदेव क्षपणक नामक जैन विद्वान हर्ष के राजकवि बाणभट्ट का मित्र था और सुप्रसिद्ध भक्तामर स्तोत्र के रचयिता जैनाचार्य मानतुंग भी इसी काल और प्रदेश में हुए माने जाते हैं ।
वशती ई० के पूर्वार्ध में कन्नौज के प्रतापी विजेता एवं विद्यारसिक नरेश यशोवर्मन का राजकवि और प्राकृत काव्य 'गौड़वहो' का रचियता वाक्पति जैन था । उसी शती के उत्तरार्ध में कन्नौज के आयुधबंशी नरेशों में से इन्द्रायुध का उल्लेख पुन्नाटसंघी जैनाचार्य जिनसेन ने अपनी हरिवंश पुराण ( ७८३ ई० ) में किया है । वह स्वयं भी उत्तर प्रदेश में विचरे प्रतीत होते हैं । इसी समय के लगभग अपभ्रंश के प्रसिद्ध महाकवि स्वयंभू हुए जिन्होंने अपभ्रंश भाषा में जैन रामायण तथा अन्य काव्यों की रचना की थी। वह मूलतः उत्तर प्रदेश, सम्भवतया कन्नौज के ही निवासी थे और वहां से चलकर दक्षिणा पथ में राष्ट्रकूट सम्राटों की राजधानी में जा बसे थे । कर्णाटक के सान्तर आदि कई सामन्त वंशों का पूर्वपुरुष जिनदत्तराय ( लगभग ८०० ई०) भी मूलतः उत्तर प्रदेश के मथुरा नगर का निवासी था । मथुरा के उग्रवंशी नरेश राह उपनाम मथुरा- भुजंग का वंशज सहकार एक दुष्ट प्रकृति का राजा था, जो अन्ततः नरमांसभक्षी हो गया था । उसकी धर्मात्मा जैन पत्नी से जिनदत्तराय का जन्म हुआ था, जिसे अपने पिता के आचरण पर बड़ी ग्लानि हुई । अतएव अपनी माता की सहमति से वह दक्षिण देश चला गया जहां उसने बड़ा पराक्रम दिखाया और कनकपुर अपरनाम पोम्बुर्च्चपुर (हुमच्च) में अपने राज्य की स्थापना की । जिनदत्तराय और उसके वंशज अपने नाम के साथ 'मथुराधीश्वर' विरुद का प्रयोग चिरकाल तक करते रहे । कालान्तर में इस बंश की कई शाखाएं - प्रशाखाएं हुईं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org