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'शाहजरन का टीला' कहलाता है, और भग्न मस्जिद के पीछे की ओर ऋषम जन्मस्थान की सूचक टौंक विद्यमान है। पी० कारनेगी (१८७० ई०) के अनुसार अयोध्या का यह सरयूपारी श्रीवास्तव राज्यवंश जैनधर्मानुयायी था और उन्हीं के द्वारा बनवाये हुए अनेक प्राचीन देहुरे (जिनायतन) अभी भी विद्यमान है। इनमें से जो बच रहे उनका जैनों द्वारा जीर्णोद्धार हो चुका है। अवध गजेटियर (१८७७ ई०) से भी उक्त श्रीवास्तव राजाओं के जैन रहा होने की पुष्टि होती है, और ला० सीताराम कृत 'अयोध्या के इतिहास' में भी लिखा है कि 'अयोध्या के श्रीवास्तव अन्य कायस्थों के संसर्ग से बचे रहे तो मद्य नहीं पीते और बहुत कम मांसाहारी हैं। इसी से अनुमान किया जा सकता है कि ये लोग पहले जैन ही थे।'
उसी काल में अवध के रायबरेली, सुल्तानपुर, उन्नाव आदि कुछ जिलों में अनेक स्थानों पर छोटे-छोटे भर राज्य स्थापित थे। ये भर लोग वीर, स्वतन्त्रता के उपासक और ब्राह्मण विद्वेषी थे। राजपूत भी उनसे घणा करते थे, और अन्ततः राजपूतों एवं मुसलमानों ने मिलकर १४वीं शती में उन्हें समाप्त कर दिया। उक्त जिलों में भरों के समय की अनेक जिन मूत्तियाँ मिली हैं । कारनेगी, कनिंघम आदि सर्वेक्षकों का मत है कि भर लोग जैनधर्मानुयायी थे। प्रायः यही बात हापुड़-बरन-कोल के धोर राजपूतों के विषय में है।
इस प्रकार पूर्व-मध्यकाल (लगभग ८००-१२०० ई०) में उत्तर प्रदेश के प्रायः सभी भागों में अल्पाधिक संख्या में जैनों का निवास था, उनके साधु-सन्त निर्द्वन्द्व विचरते थे, और प्रदेश में स्थित उनके प्रमुख तीर्थक्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य अनेक नगरों, कस्बों और ग्रामों में उनके देवालय विद्यमान थे। प्रदेश के कई जैन अतिशय क्षेत्र एवं कलाधाम तो संभवतया इसी युग में उदय में आये । साहित्य सृजन भी हुआ। उस पूरे काल में इस प्रदेश में जैनधर्म को शायद कभी भी सुनिश्चित या उल्लेखनीय राज्याश्रय प्राप्त नहीं रहा-किसी भी बड़े राज्यवंश का कुलधर्म, या किसी भी राज्य का राज्यधर्म वह नहीं रहा लगता तथापि उस युग में पौराणिक ब्राह्मण धर्म के पश्चात प्रदेश का दूसरा प्रधान धर्म जैनधर्म ही था। प्राचीन भारत के तीसरे प्रधान धर्म, बौद्धधर्म का, प्रदेश के बहुभाग पर उस युग में प्रायः कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। वैश्यवर्ण का तो बहुभाग जैनधर्म का अनुयायी था और ब्राह्मण, राजपूत, भर, कायस्थ आदि वर्णों एवं जातियों में भी उसके अनुयायी पाये जाते थे। कालान्तर में (१५वीं-१६वीं शताब्दियों में) दक्षिणाचार्यों के प्रयत्नों से प्रदेश में वैष्णव धर्म की राम एवं कृष्ण भक्ति शाखाओं के प्रचार-प्रसार के परिणाम स्वरूप जैनपैश्यों का बहभाग शनैः-शनैः गैष्णवधर्म में दीक्षित होता गया, क्योंकि इन सम्प्रदायों का आचार-विचार जैन अचार-विचार से निकटतम था।
वस्तुतः, प्रदेश में जैन जनता की संख्या एवं स्थिति जैसी उक्त पूर्वमध्यकाल में रही, उसके पूर्ववर्ती गुप्त एवं गुप्तोत्तर कालों में उससे विशेष भिन्न नहीं थी। यदि उक्त कालों से सम्बन्धित पुरातात्त्विक आदि प्रमाण अति विरल हैं, तो कोई ऐसा संकेत भी नहीं है कि प्रदेश में कहीं भी और कभी भी जैनों पर कोई भीषण अत्याचार हुआ हो, उनका सामूहिक संहार हुआ हो, अथवा प्रदेश से बड़ी संख्या में उनका निष्कासन हुआ हो।
जहाँ तक जैनधर्म के आन्तरिक विकास और स्वरूप का सम्बन्ध है, दिगम्बर-श्वेताम्बर संघभेद होने के समय (प्रथमशती ई० का अन्त) से लेकर मध्ययुग के प्रारम्भ (लगभग १२०० ई०) पर्यन्त उत्तर प्रदेश में दिगम्बर सम्प्रदाय का बाहुल्य रहा-यही स्थिति उसके उपरान्त भी प्रायः वर्तमान काल तक चली आ रही है। किन्तु उस पूर्णकाल की यह विशेषता थी कि सम्प्रदायभेद साधुओं तक ही सीमित था, जनता में दिगम्बर-श्वेताम्बर जैसा कोई भेद प्रायः नहीं था। प्रदेश में दोनों ही आम्नायों के तीर्थस्थान, मन्दिर, अन्य धार्मिक स्मारक तथा देवमूत्तियाँ अभिन्न यीं। उस काल की समस्त उपलब्ध अर्हत या तीर्थंकर मूत्तियाँ दिगम्बर हैं। जनता दोनों ही आम्नायों के साधु
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