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सुन्दरी नाम की दो कन्याएं उत्पन्न हुई। उन्होंने पुत्रियों को भी पुत्रों के समान शिक्षा दी-ब्राह्मी को अक्षर ज्ञान की शिक्षा देने के निमित्त से ही प्राचीन ब्राह्मी लिपि का आविष्कार हुआ, और सुन्दरी को अंकज्ञान दिया। इस प्रकार चिरकाल पर्यन्त आदिदेव ने प्रजा का पालन एवं पथप्रदर्शन किया।
एकदा अपनी राजसभा में नर्तकी नीलांजना की नृत्य के बीच में ही मत्यु हो जाने पर भगवान को संसारदेह-भोगों की क्षणभंगुरता का भान-हुआ, और उन्होंने सब कुछ त्यागकर वन की राह ली। सर्व परिग्रह विमुक्त यह निर्ग्रन्थ मुनिश्रेष्ठ दुर्धर तपश्चरण द्वारा आत्मसाधन में लीन हुआ। एक स्थान पर ही कायोत्सर्ग योग से खड़े रहकर उस योगीश्वर ने छः मास की समाधि लगाई, जिसके उपरान्त वह अगले छः मास पर्यन्त यत्र-तत्र विचरते रहे, किन्तु पारणा नहीं हुआ। अन्ततः गजपुर (उ. प्र. के मेरठ जिले में हस्तिनापुर) में वहां के राजा सोमयश के अनुज कुमार श्रेयांस ने उन्हें वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन इक्षुरस का आहार दिया। अतः वह दिन 'अक्षयतृतीया' के नाम से लोक प्रसिद्ध हुआ। श्रेयांस ने दान-स्थल पर एक स्तूप का निर्माण कराया । अपने मुनिजीवन में गढ़वाल हिमालय के पर्वतशिखरों पर योगीश्वर ऋषभ ने तप किया और प्रयाग में त्रिवेणी संगम के निकट एक वटवृक्ष (जो इसीलिए अक्षयवट कहलाया) के नीचे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। तभी और वहीं उन्होंने अपना धर्मचक्र प्रवर्तन किया-इस कल्पकाल में अहिंसामयी आत्मधर्म का उपदेश लोक को सर्वप्रथम दिया। इस प्रकार धर्म के भी आदि पुरस्कर्ता प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हुए। पौराणिक हिन्दू परम्परा में उन्हे विष्णु का आठवां अवतार बताया गया है, और भागवत आदि मुख्य पुराणों में उनका वर्णन जैन अनुश्रुति से प्रायः मिलता जुलता ही मिलता है। ऋग्वेदादि वेद ग्रन्थों में भी उनके स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं तथा प्रागऐतिहासिक सिन्धुघाटी सभ्यता के अवशेषों में उन दिगम्बर-कायोत्सर्ग-ध्यानस्थ योगीश्वर के अंकन से युक्त मृण्मुद्राएं मिली हैं। कई विद्वान तो शिव (महादेव, शंकर) और ऋषभदेव को अभिन्न रहा मानते हैं। सेमेटिक परम्परा के आद्यमानव 'बाबा आदम' से भी आदिपुरुष ऋषभ का ही अभिप्राय रहा हो तो आश्चर्य नहीं।
चक्रवर्ती भरत--ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र महाराज भरत सभ्य संसार के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट थे। उन्हीं के नाम पर यह महादेश भारत या भारतवर्ष कहलाया, इस विषय में जैन एवं ब्राह्मणीय पौराणिक अनुश्रुतियां एकमत हैं। भरत ने धर्मात्मा, सन्तोषी एवं ज्ञान-ध्यान रत व्यक्तियों को ब्राह्मण संज्ञा देकर चतुर्थ वर्ण की स्थापना की थी। भरत चक्रवर्ती की राजधानी अयोध्या ही थी। अन्त में राज्य त्यागकर उन्होंने भी अपने पिता तीर्थंकर के मार्ग का अनुसरण किया और मुक्ति प्राप्त की। उनके अनुज बाहुबली भी अद्भुत तपस्वी योगिराज हुए। उन्हीं के पुन सोमयश हस्तिनापुर के प्रथम नरेश थे, जिनसे प्राचीन क्षत्रियों का चन्द्रवंश चला-अयोध्या में स्वयं भरत के पूत्र एवं उत्तराधिकारी अर्ककीति से सूर्यवंश चला। सोमयश के एक वंशज कुरु के नाम पर कुरुवंश चला और हस्तिनापुर के आस-पास का प्रदेश कुरुदेश कहलाया, तथा एक अन्य वंशज महाराज हस्तिन के समय से गजपुर का नाम हस्तिनापुर प्रसिद्ध हुआ। कुरुवंश की ही एक शाखा पांचाल कहलाई, जिसकी उत्तरी शाखा की राजधानी अहिच्छत्रा (बरेली जिले में) तथा दक्षिणी शाखा की राजधानी काम्पिल्य (फरुखाबाद जिले में) हुई।
अन्य तीर्थकर-ऋषभ निर्वाण के बहत समय उपरान्त अयोध्या में ही इक्ष्वाकुवंशी-काश्यपगोत्रीय राजा जितशत्रु की रानी विजया की कुक्षि से दूसरे तीर्थकर अजितनाथ का जन्म हुआ। उनके निर्वाण के कुछ समय पश्चात इसी नगर एवं नंश में जैन अनुश्रुति के अनुसार दूसरा चक्रवर्ती सगर हुआ। तीसरें तीर्थंकर भी इसी वंश के थे, किन्तु उनका जन्म श्रावस्ती (उ. प्र. के बहराइच जिले का सहेट-महेट) में हुआ था। चोथे तीर्थंकर अभिनन्दन नाथ और पांचवें तीर्थंकर सुमतिनाथ का जन्म भी अयोध्या में हआ। छठे तीर्थकर पद्मप्रभु का जन्म
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