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रूप से द्वितीय महायुद्ध के बाद से । पच्चीस वर्षों में इस तेजी से वह एक आर्थिक शक्ति हो गया है कि उसके अपने ही लोग कुछ समय पूर्व तक भी औद्योगिक और प्रकृतिपर दूषण से जो परिवर्तन होगा उस पक्ष के प्रभावों पर गहराई से नहीं सोच पाये हैं।
जापान अब जागृत हो रहा है। वह 'जीवन के लिए संघर्ष' के नारे के स्थान पर 'जीवन के लिए संतुलन' के नारे की स्थापना को १९८० की सभ्यता का लक्ष्य मानकर उठ रहा है।
यूरोप मांसाहार का प्रभाव केन्द्र रहा है और एशिया की तथाकथित प्रगति का अगुआ होने के कारण जापान ने भी यूरोप की आदतों का अनुकरण किया है। पहले जापानी मुख्य रूप से शाकाहारी पे और अमेरिकन एडमिरल परी के पहुंचने तक अधिक मात्रा में शाक-सब्जी की कृषि में प्रचुरता से स्वनिर्भर थे। उसी शताब्दी में जापान यूरोप और उत्तरी अमेरिका के लोगों के मांसाहार के तरीके की नकल करने वाले देश में बदल गया । मगर तब भी जीवन्त दर्शन के दो स्वरूप देश में अपना सह-अस्तित्व बनाए हुए हैं-एक शहरवासियों में दिखाई देता है जो सामान्यतः सतही-छलपूर्ण तरीकों से आर्थिक लाभ के पिछलग्गू होते हैं, दूसरा चरवाही जीवन में विशेष रूप से स्त्री जाति में दिखाई देता है जहां शान्त गृह-स्वामी शाकाहारी होते हैं । इस कारण शहरी क्षेत्र में किसी विदेशी पर्यटक को शाकाहारी आवास अथवा आहार प्रतिष्ठान प्राप्त करने में कठिनाई हो सकती है, परन्तु ग्रामीण जिलों में जापानी पद्धति के अतिथि-घर और सराय प्राप्त कर लेना बहुत सहज है।
___ जापान में शाकाहारी सिद्धान्त (धार्मिक और आचारिक भी) का व्यापक स्तर पर साधारण जन में तो थोड़ा ही झुकाव है, मगर बौद्धिकों द्वारा मानसिक, पोषणिक और चिकित्सा विज्ञान के लिए विशेष रूप से उपचारात्मक गुणों के लिए इसकी शोध की जाती है। ऐसे अनेकों स्वास्थ्यालय हैं जहां शाकाहारी सुविधाएं चिकित्सकों द्वारा प्राकृतिक चिकित्सा के आधार पर उपलब्ध कराई जाती हैं।
-डा. मसाकाजु टटाडा
नीदर लण्ड (हालैण्ड)
एक करोड़ तीन लाख की आबादी वाले इस देश में शाकाहारी होना कोई कठिन काम नहीं है । हालैण्ड में दूध की बनी वस्तुएं,फल और शाक-सब्जियाँ प्रचुरता से उपलब्ध हैं। वहां के अधिकांश चिकित्सक भी यह स्वीकार करते हैं कि दूध आदि के शाकाहारी पथ्य से स्वास्थ्य को किसी भी प्रकार का खतरा नहीं होता। . इस देश में बारह हजार शाकाहारी हैं । डच शाकाहारी समाज की सदस्य संख्या भी दो हजार पाँच सौ है। इनमें अनेक ऐसे भी हैं जो दूध की बनी किसी भी वस्तू अथवा अण्डे का भी उपयोग नहीं करते। इसके अतिरिक्त लगभग अस्सी शाकाहारी लोगों का एक और समूह है जो स्वतन्त्र रूप से कार्य करता है और एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी करता है।
हालैण्ड के पूर्वी भाग में कस्बे के करीब खूबसूरत जंगली वातावरण में वृद्धों के लिए एक सुन्दर आवास गृह भी है जिसमें अस्सी और नब्बे वर्ष की आयु के वृद्ध लोग रहते हैं। हर एक के लिए अलग फ्लेट है । भोजन केन्द्रीय रसोई घर में बनता है। सभी एक-दूसरे के प्रति सद्भाव रखते हैं। छोटे-छोटे कार्य भी करते हैं। ये सब सामाजिक कार्यों में भी भाग लेते हैं । सन् १८९४ ई० में स्थापित इस संस्था ने १९६८ ई. में वृद्धों के लिए नये आवास गृह का निर्माण करवाया। .
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