________________
२२
]
महत्वपूर्ण वैज्ञानिक उपलब्धि है। प्रत्येक संयंत्र में ऊर्जा का विश्लेषण करना और उसकी रासायनिक क्रियाओं का पता लगाना ही विज्ञान का मुख्य कार्य है। इस विधि से ही ऊर्जा के रूपों तथा मापों का निश्चय किया जाता है।
पुराने लोग दांतों से आंतों का परिज्ञान करते थे। जहां तक शारीरिक रचना-प्रक्रिया का सम्बन्ध है, यह देखने में आता है कि हिंसक-प्राणियों की जैसी आंतें होती हैं, प्रकृति के अनुसार उनके दांत भी वैसे ही चीर-फाड़ करने वाले नुकीले होते हैं। मनुष्य की आंतड़िया और उसके दांत केवल शाकाहार के लिए उपयुक्त हैं । आधुनिक चिकित्सकों के अनुसार भारतीय वातावरण और जीवन मांसाहार के सर्वथा प्रतिकूल हैं।
प्रायः लोग यह समझते हैं कि मांस खाने से हमारे शरीर की मांस एवं शक्ति बढ़ती है। मांस से मांस बढ़ता है, पर शक्ति-वृद्धि होती है यह कहना उचित नहीं है । मांस बढ़ने से शक्ति में वृद्धि नहीं होती। भारीशरीर बनाने मात्र से कोई पहलवान नहीं हो जाता। शरीर में शक्ति की वृद्धि के साथ-साथ उसका स्फुरण होना भी आवश्यक है । शाकाहार से स्फुरण-शक्ति का विकास होता है । शरीर की वास्तविक शक्ति को आयुर्वेद में 'ओज' नाम से अभिहित किया गया है। मांसाहार से ओज विशेष प्रगट नहीं होता। दूध, दही और घी से विशेष रूप से
और तत्काल ओज शक्ति का स्फुरण होता है । अतएव घायल, बीमार, अशक्त और गर्भिणी तथा प्रसूता को दुग्धाहार दिया जाता है । शिशु का तो मुख्य आहार ही दुग्ध-पान है। माता के दुग्ध से बढ़कर उसका अन्य आहार नहीं हो सकता । गर्भ में भी शिशु माता से ओज-आहार ग्रहण कर जीवित रहता है। जिन गर्भस्थ शिशुओं को यह ओजआहार नहीं मिल पाता है अथवा उसके ग्रहण करने में किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न हो जाता है उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती है । इससे स्पष्ट है कि स्थूल आहार की अपेक्षा सूक्ष्म आहार का वैशिष्ट्य है, जो मांसाहार करने में प्राप्त नहीं होता । अतएव मांसाहार को शक्तिवर्द्धक कहना उचित नहीं है।
यदि मांसाहार मनुष्य के लिए उपयुक्त नहीं है तो यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि क्या शाकाहार उचित है ? मानवता, नैतिकता और किसी बौद्धिक नियम की दृष्टि से मांसाहार उचित नहीं हैं । क्योंकि बिना किसी के बध किए अथवा मृत्यु को प्राप्त हए उसका मांस नहीं मिल सकता । दूसरे, उसके शरीर के साथ सम्बद्ध तरह-तरह के रोग और विषले कीटाण भी हमारे भीतर प्रविष्ट हो जाते हैं जो अनेक रोगों के घर होते हैं।
चरक के सूत्रस्थान अ० २ में कहा गया है कि 'प्राणाः प्राणभूतामन्नम्' अर्थात अन्न प्राणियों का प्राण है। अन्न मनुष्य का उचित आहार है । इसकी प्रथम अन्वेषणा भारत में की गई थी। आदि तीर्थंकर ऋषभदेव ने जो 'कृषि के देवता' भी कहे जाते हैं, उन्होंने संसार को खेती करना और निर्जीव शाकाहार को ग्रहण करना मनुष्य का वास्तविक एवं उचित आहार निरूपित कर बताया था । यही कारण है कि मनुष्य कच्चे तथा वन-उपवनों से तोड़ कर लाये हुए शाक-फलों आदि को ज्यों का त्यों ग्रहण नहीं करता । उसे सुधारकर, पकाकर, उबालकर तथा संस्कार कर विविध रूपों में उनका सेवन किया करता है, जिससे उसके अवशिष्ट दोष नष्ट हो जाते हैं। ऐसा भोजन ही हमारे शरीर को मानसिक और शारीरिक निर्माण के लिए सभी प्रकार के पोषक तत्व प्रदान करता है। शुद्ध सात्विक और स्वच्छ भोजन के ग्रहण करने से मनुष्य का जीवन भी शुद्ध सात्विक बनता है । जीवन को शुद्ध और साविक बनाना ही स्वस्थता का उत्तम लक्षण है । अतएव मनुष्य अपने जीवन को पवित्र और अच्छा बनाना चाहता है तो उसे अपने प्राकृतिक भोजन शाकाहार को अपनाना ही चाहिए।
हमें शरीर को स्वस्थ एवं पुष्ट बनाने के लिए निम्नलिखित तत्वों वाले खाद्यों का प्रयोग प्रतिदिन करना चाहिए :
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org