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ख-४
प्रयोग सारी जटिलताओं को समाप्त कर देता है। विभिन्न दार्शनिक दृष्टियों का समाधान इससे अच्छा और क्या हो सकता है।
जैन दर्शन के इन सिद्धान्तों की आधार-भूमि पर जिस आचार-संहिता का भवन खड़ा हुआ, उसे एक शब्द में कहें तो कह सकते हैं "अहिंसा"। सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, सच मानों तो इसी के अंग हैं । अहिंसा के बिना इनकी साधना हो ही नहीं सकती। आपने असत्य बोला नहीं कि हिंसा हो गयी। चोरी की बात सोची नहीं कि हिंसा तभी हो गयी। अब्रह्म और परिग्रह की हिंसा प्रत्यक्ष दिखाई देती है । हिंसा बहुआयामी है और उसका समाधान है एक मात्र अहिंसा।
महावीर ने अहिंसा का प्रयोग समग्र जीवन के लिए किया। सामाजिक जीवन और आर्थिक क्षेत्र में इसका प्रयोग कैसे हो सकता है, राजनीति इसका वरण कैसे करे, इस सबके लिए उन्होंने आधार सूत्र दिये-जब तक मानव-मानव में ऊंच-नीच की दीवार खड़ी रहेगी, अहिंसा सध नहीं सकती। सामाजिक जीवन संतुलित हो नहीं सकता। सबको समान मानो और समान अवसर दो। धन और जन को कुछ हाथों में केन्द्रित करना ठीक नहीं है। परिग्रह की मर्यादा बना कर चलना होगा। बिना अनुमति किसी की वस्तु लेना अनुचित है। भले ही वह धर्म के नाम पर क्यों न हो। दूसरे के प्राण तो किसी भी स्थिति में नहीं लेना चाहिए।
राजनीति के विषय में उन्होंने कहा-शासक को प्रजाजन से उतना ही अंश लेना चाहिए जितने से वह पीड़ित न हो। जैसे भौंरा फूल में से रस ग्रहण करके अपने को तृप्त कर लेता है और फूल को नुकसान भी नहीं पहुंचाता, ऐसे ही शासक को अपना मागधेय ग्रहण करना चाहिए।
जैन दर्शन की यह स्पष्ट फलश्रुति है कि वर्ग भेद चाहे वह धर्म के नाम पर हो चाहे आर्थिक कारणों से, वह हिंसा है। स्वर्ग के सुखों का प्रलोभन दे कर वर्तमान की साधन सुविधाओं को स्वाहा करना असत्य है, चोरी है, हिंसा है। अर्थ को अपने हाथों में समेट लेना परिग्रह है और परिग्रह बिना हिंसा के हो नहीं सकता।
आज हम जिस युग में जी रहे हैं उसमें जैन दर्शन के सिद्धान्तों की व्यापकता और अधिक नजर आती है। आज कोई भी बड़े से बड़ा व्यक्ति, बड़े से बड़ा समाज और बड़े से बड़ा राष्ट्र अपनी बात को, अपनी विचारधारा को दूसरे के ऊपर थोप नहीं सकता। इसे मैं तो अनेकान्त के चिन्तन का प्रसार ही कहंगा। वर्गहीन समाज, समानाधिकार, आर्थिक सन्तुलन और धर्म निरपेक्ष शासन की जो इतनी व्यापक रूप से बात कही जाने लगी है, वह महावीर की साधना के बट बीज का छतनार वृक्ष है। अहिंसा का प्रयोग व्यक्ति के जीवन से समाज और राष्ट्र के जीवन में किस प्रकार हो सकता है इसका प्रयोग करके गान्धी जी ने हमारे सामने रख दिया है, जिसका प्रभाव सम्पूर्ण विश्व पर है।
जैन दर्शन के सिद्धान्तों की समय-समय पर अनेक प्रकार से व्याख्या की गयी। निःसन्देह मानवीय मूल्यों की दृष्टि से उसका व्यापक क्षेत्र है। जैन चिन्तन ने विभिन्न युगों में दूसरे जीवन-दर्शनों को पर्याप्त रूप से प्रभावित किया है। तीर्थंकरों का चिन्तन मानवीय मूल्यों के जिस व्यापक घरातल पर प्रतिष्ठित है वह देश और काल की सीमाओं से परे है। युग के सन्दर्भ में जैन दर्शन की पुनर्व्याख्या की जाए तो आज हम एक ऐसे जीवन दर्शन की कल्पना कर सकते हैं जो समग्र मानवता के लिए हो, जो सम्पूर्ण विश्व का जीवन दर्शन हो, जो जन-दर्शन हो।
सिद्धान्तों की उदारता और व्यापक दृष्टिकोण के कारण ही जैन दर्शन ने विकास की इतनी व्यापक सम्भावनाएं मानीं, कि व्यक्ति से विराट, आत्मा से परमात्मा, मानव से महामानव और जीव मात्र में भगवान् बनने की सामर्थ्य का प्रतिपादन किया। सभी भारतीय दर्शन जहां ईश्वर को आदि में रखकर आगे चले वहां जैन दर्शन
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