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माल रखना, झूठी गवाही देना, तस्करी, घूसखोरी, मिलावट आदि करना-इन सबसे दूर रहना वह अपना कर्तव्य समझता है । वह शाकाहारी वृत्ति का पोषक होता है । मदिरा, जुआ आदि व्यसनों को उन्हें हिंसा का कारण जानकर वह त्याग देता है। अनावश्यक एवम् अनैतिक कामातुरता को वह अशोभनीय समझता है। उसको कुल, जाति, रूप, ज्ञान, धन, तप और प्रभुता का मद नहीं होता। सबके प्रति मैत्री, गुणीजनों की प्रशंसा एवं दुखियों की सेवासुश्रुषा अहिंसक प्रक्रियाएं हैं; अतः कहा जा सकता है कि जैसे प्यासों के लिए पानी, और रोगियों के लिए औषधि आवश्यक है वैसे ही संसार में प्राणियों के लिए अहिंसा है।
महावीर इस बात को भली-भांति जानते थे कि आर्थिक असमानता और आवश्यक वस्तुओं का अनुचित संग्रह समाज के जीवन को अस्तव्यस्त करने वाला है। इनके कारण एक मनुष्य दुसरे का शोषण करता है । मनुष्य की इस लोभ-वृत्ति के कारण समाज अनेक कष्टों का अनुभव करता है। इसलिए महावीर ने कहा कि आर्थिक असमानता को मिटाने का अचूक उपाय है अपरिग्रह । परिग्रह के सब साधन सामाजिक जीवन में कटुता, घृणा और शोषण को जन्म देते हैं। अपने पास उतना ही रखना जितना आवश्यक है। बाकी सब समाज को अर्पित कर देना, अपरिग्रह पद्धति है। धन की सीमा, वस्तुओं की सीमा-ये सब स्वस्थ समाज के निर्माण के लिये जरूरी हैं। धन हमारी सामाजिक व्यवस्था का आधार होता है। और कुछ हाथों उसका एकत्रित हो जाना समाज के एक बहुत
विकसित होने से रोकता है। जीवनोपयोगी वस्तुओं का संग्रह समाज में अभाव की स्थिति पैदा करता है। ऐसे परिग्रह के विरोध में महावीर ने आवाज उठायी और समाज में अपरिग्रह के नैतिक मूल्य की स्थापना की।
आर्थिक असमानता के साथ-साथ वैचारिक मतभेद भी समाज में द्वन्द्व को जन्म देते हैं, जिसके कारण समाज रचनात्मक प्रवृत्तियों को विकसित नहीं कर सकता है। वैसे तो वैचारिक मतभेद मानव-मन की सृजनात्मक मानसिक शक्तियों का परिणाम होता है, पर इसको उचित रूप से न समझने से मनुष्य के आपसी मतभेद संकुचित संघर्ष के कारण बन जाते हैं और इससे समाज शक्ति विघटित होती है। समाज के इस पक्ष को महावीर ने गहराई से समझा और एक ऐसे नैतिक सिद्धान्त की घोषणा की जिससे मतभेद भी सत्य को देखने की दृष्टियां बन गये और व्यक्ति समझने लगा कि मतभेद दृष्टि-पक्ष भेद के रूप में ग्राह्य हैं। वह सोचने लगा कि मतभेद संघर्ष का कारण नहीं, शक्ति और विकास का द्योतक है। वह एक उन्मुक्त मस्तिष्क की आवाज है। इस तथ्य को प्रकट करने के लिए महावीर ने कहा कि वस्तु एकपक्षीय न होकर अनेकपक्षीय होती है। वह अनेकान्तिक है, एकान्तिक नहीं। अनेकान्त के इस बौद्धिक-नैतिक मूल्य से समाज में विचारों का संघर्ष ग्रहणीय बन गया। मनुष्य ने सोचना प्रारम्भ किया कि उसकी अपनी दृष्टि ही सर्वोपरि न होकर दूसरे की दृष्टि भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। उसने अपने क्षुद्र को गलाना सीखा। समाज के इस बौद्धिक-नैतिक मूल्य ने सत्य के विभिन्न पक्षों को समन्वित करने का मार्ग खोल दिया। सत्य किसी एक व्यक्ति, धर्म, राष्ट्र में बंधा हुआ नहीं रह गया। प्रत्येक व्यक्ति सत्य के एक नये पक्ष की खोज कर समाज को गौरवान्वित कर सकता है। समाज के इस बौद्धिक-नैतिक मूल्य ने अनुचित वैचारिक संघर्ष को समाप्त करने का निमंत्रण दिया और कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिये अह्वान किया। अनेकांत समाज का बौद्धिकनैतिक गत्यात्मक सिद्वान्त है जो जीवन में वैचारिक गति उत्पन्न करता है।
अत: यह कहा जा सकता है कि महावीर ने नैतिक जागरण के लिये व्यक्ति और समाज के परिप्रेक्ष्य में जो बोध हमें दिया वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इससे हमारा बौद्धिक, आर्थिक, राजनैतिक जीवन परिमार्जित होता है, जिसके फलस्वरूप समाज सुगठित एवं समुन्नत हो जाता है। विश्व के राष्ट्र, अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के माध्यम से युद्ध, शोषण और तनाव को समाप्त कर शान्ति, समानता और सहअस्तित्व के वातावरण से मानव कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
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