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५६ ] जन्मतः कोई मेद नहीं होता, और इसीलिए भगवान महावीर के शासन में प्रतिपादित व्यवस्था को लेकर जातिगत अभिमान को जाति मद कहा गया है, जो कि सभ्यक्-दर्शन का दोष माना गया है । समझदार लोगों को जाति का गर्व नहीं कराना चाहिए।
जातिगर्यो न कर्तब्यस्ततः कुत्रापि धीधनैः । जैनधर्म में बड़ी ही उदारतापूर्वक कहा गया है कि-इस धर्म का जो भी आचरण करता है. वही श्रावक अर्थात जैन है भले ही वह ब्राह्मण हो, शूद्र हो या और अन्य कोई भी हो, क्योंकि श्रावक के सिर पर कोई मणि नहीं रहता, जिससे पहचाना जा सके कि यह श्रावक है।
____ इससे स्पष्ट है कि कोई भी व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के जैनधर्म धारण कर सकता है और श्रावक हो सकता है।
मनुष्य और मनुष्य के बीच जातिगत भेदभाव के आधार पर लोगों को छोटा बड़ा माना जाने लगा और इसीलिए विविध प्रकार के कलह, द्वेष एवं मात्सर्य भाव फैले तथा मनुष्यों के बीच खून खराबा हुआ। यह अनाचार भगवान महावीर के उस पावन सन्देश को भुला देने से ही हुआ कि मनुष्य और मनुष्य के बीच जातिगत कोई भेद नहीं हो सकता । वस्तुतः सर्वोदयी जैनधर्म में जातिवाद के लिए स्थान ही नहीं है।
आज केवल भारतवर्ष में ही नहीं अपितु समूचे विश्व में मानव जाति के बीच जन्म, रंग और विविध प्रकार की काल्पनिक ऊँच नीचता को लेकर पहिले से भी अधिक भयानक स्थिति बनी हुई है। इसलिए यदि भगवान महावीर के और अन्य जैनाचार्यों के उपदेशों एवं संदेशों का पुनः प्रचार किया जाय तो मानव जाति के मध्य मैत्री एवं भ्रातृभाव स्थापित हो सकता है।
महावीर ने तो अखिल मानव समाज के योग क्षेम (क्षेमं सर्व प्रजानां) की भावना भाने की बात कहकर विश्वबंधुत्व या विश्वकल्याणकारिता का उपदेश दिया है। इस प्रकार भगवान महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा में वह उपदेश, आदेश या सन्देश दिये गये थे जो आधुनिक युग में पहले से भी अधिक उपयुक्त होते हैं। यदि हम उन पर चल सकें तो हमारी समाज या हमारा देश ही नहीं, अपितु अखिल विश्व सुख, शान्ति और निराकुलतापूर्वक रह सकता है।
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