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धार्मिक दृष्टि से, संसार का कोई धर्म या धर्मोपदेष्टा ऐसा नहीं हुआ, जिसने प्राणियों का वध करके उनका मांस खाने का खुला प्रचार किया हो, वरन् प्रायः सबने ही जीव-दया का उपदेश दिया और मांसाहार प्रवृत्ति को हतोत्साहित किया। प्राचीन यूनान में महान दार्शनिक पाईथेगोरस तथा तत्कालीन स्टोइक सम्प्रदाय के अनुयायी शुद्ध शाकाहारी थे और मांसाहार का सर्वथा निषेध करते थे । यही महावीर और बुद्ध का युग था। प्रायः उसी काल में ईरान के जरथुश्त और चीन के कनफ्यूशस एवं लाओत्से ने जीवदया का प्रचार किया। ईसामसीह की पांचवीं आज्ञा थी कि किसी प्राणी की हत्या न करो' 'ईसाईयों की जिनेसिस में भी परमेश्वर की ओर से यह कहा गया है कि 'कन्दमूल, बीज, फल, शाक आदि पदार्थ खाओ, वही तुम्हारे लिए मांस का काम देंगे।' हजरत मुहम्मद ने भी जीवदया का उपदेश दिया। उनके पवित्र मक्का स्थित काबे के चारों ओर कई मील की परिधि में किसी भी पशु-पक्षी की हत्या नहीं की जाती और हजकाल में प्रत्येक हाजी मद्यमांस का सर्वथा त्यागी रहता है। मुगल सम्राट अकबर ने स्वयं तो मांसाहार का त्याग कर ही दिया था, अपने दीने-इलाही में भी मांसाहार को हतोत्साहित किया। गुरू नानक के अनुयायी सिक्ख प्रायः मांसभोजी हैं, किन्तु गुरु महाराज ने गुरुग्रन्थ-साहिब में स्थान-स्थान पर उसका निषेध किया और एक स्थल पर तो लिखा है कि 'जो व्यक्ति मांस, मछली और शराब सेवन का करते हैं, उनके धर्म, कर्म, जप, तप सब कुछ नष्ट हो जाते हैं।"
प्राचीन वैदिकधर्म में याज्ञिक हिंसा चलती थी और वैदिक आर्य उन्मुक्त मांसभोजी थे, ऐसा कहा जाता है। किंतु उसी परम्परा की आत्मविाद्यवादी उपनिषदों, व्यासकृत महाभारत और मनुस्मृति में मांसाहार की निंदा एवं निषेध किया गया है। आगे चल कर श्रीशैव, वैष्णव, लिंगायत इत्यादि अनेक सम्प्रदायों में भी शुद्ध शाकाहार का प्रचलन हुआ । वर्तमान हिन्दू समुदाय में जो व्यक्ति धर्म, समाज, जाति या प्रथा की आड़ लेकर मद्य मांस का सेवन करते भी हैं वे भी प्रायः गुपचुप ही करते हैं. खुले आम उसका अनुमोदन करने में वे भी बहुधा संकोच करते हैं। महात्मा बुद्ध तो दयामूर्ति थे, उन्होंने तो अहिंसा और शाकाहार का ही उपदेश दिया था। किंतु, उनके अनुयायियों ने उनके कतिपय संदिग्ध कथनों की अपने मनोनुकूल व्याख्या करके मांसाहार का प्रचलन कर लिया, यहाँ तक कि उस महापुरुष पर भी मांसाहार का मिथ्या आरोप लगा डाला।
जैनधर्म एक ऐसा धर्म है जो अपने इतिहास के प्रारम्भ से ही अहिंसा प्राधान है । उसका सम्पूर्ण आचारविचार अहिंसा की धुरी पर ही घूमता है। जैनी होने की पहली शर्त यह है कि मांस और मद्य का सर्वथा त्यागी हो। इस विषय में किसी अपवाद की इस परम्परा में कोई गंजाइश ही नहीं है । धर्म का लक्षण ही वस्तु-स्वभाव है, अर्थात् आत्मा का स्वभाव ही उसका धर्म है और वह है अहिंसा-सर्वप्रकार की हिंसा से विरति । उस अहिंसक आत्मस्वभाव के साधन का मार्ग संयम है, जो प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम के रूप में द्विविध है। अपनी मानसिक, वाचनिक एवं कायिक सभी प्रवृत्तियों पर, इन्द्रियों पर और इच्छाओं पर नियंत्रण रखना तथा संयमित-नियमित जीवन व्यतीत करना संयम है। और प्रत्येक प्राणी के प्रति इस प्रकार यत्नाचारपूर्वक बर्तना कि उसे किसी प्रकार का मानसिक अथवा शारीरिक कष्ट या पीड़ा न हो, प्राणीसंयम है। अतएव सर्वप्रकार का अभक्ष्य-भक्षण वजित है । अभक्ष्यों में सभी अनुपसेव्य (मल, मूत्र, मिट्टी आदि), अनिष्ट (विष एवं विषाक्त तथा अपनी प्रकृति के प्रतिकूल पदार्थ), वसघात (त्रसजीवों की हत्या से प्राप्त रक्त-मांस, मछली, अण्डे आदि) तथा बहुघात (ऐसी वनस्पति भी जिनमें बहुत से सूक्ष्म जीवों का घात हो) का सेवन निषिद्ध है । सामान्यतया तामसिक एवं राजसिक पदार्थों का भी निषेध है । शुद्ध, स्वच्छ, स्वास्थ्यकर, सात्विक अन्न, फल , शाक, मेवे, दुग्ध एवं शुद्ध निर्मल जल के सेवन का ही विधान है । ऐसे उत्तम भाजन-पान से ही शरीर का स्वास्थ्य, चित्त की प्रसन्नता, बुद्धि की निर्मलता एवं अत्मिक जागरूकता सधते हैं। "जीवो जीवस्य भोजनम" की दलील देने वालों को तीर्थंकरों का उत्तर है। 'परस्परोपगृहोजीवानाम्' ।
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