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ख-४
व्यापक सिद्धांत है कि क्रोध को क्रोध से नहीं, क्षमा से जीतो। दंभ को दंभ से नहीं, सरलता और निश्छलता से जीतो।
से नहीं, संतोष से जीतो, उदारता से जीतो। इसी प्रकार भय को अभय से, घणा को प्रेम से जीतना चाहिये। अहिंसा प्रकाश की अन्धकार पर, प्रेम की घृणा पर, सद्भाव की वैर पर तथा अच्छाई की बुराई पर विजय का अमोघ अस्त्र है। यह वही पथ है, जिस पर चल कर मानव, मानव को मानव समझ सकता है। दूसरे साथ ही यह विश्व के समग्र-चेतन्य को एक धरातल पर ला खड़ी करती है। अहिंसा समग्र प्राणियों में एकता एवं समानता स्थापित करती हैं।
अहिंसा का जितना बड़ा महत्व प्राचीन काल में था, उतना ही, बल्कि उससे कहीं ज्यादा महत्व आज के युग में हैं, आज की परिस्थितियों में है। आज आवश्यकताएँ अनन्तमूखी हो चली हैं, जब कि उनकी पूर्ति के साधन सीमित हो चले हैं। ऐसी स्थिति में आज के बदले हुए युग में भगवान महावीर की अहिंसा सम्मतवाणी का महत्व और भी बढ़ जाता है अहिंसा का व्यापक सिद्धांत सार्वकालिक है। यह प्राचीन युग में भी आवश्यक था, वर्तमान में उससे भी बढ़कर आवश्यक है, और भविष्य में इससे भी ज्यादा आवश्यक रहेगा।
मानव जीवन के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि सभी क्षेत्रों की, और समस्त राष्ट्रों की समस्याओं, झगड़ों, प्रश्नों एवं मसलों को स्थायी रूप से हल करने के लिए अहिंसा अमोघ साधन है। मन की पवित्रता से साक्षात्कार
२. सत्य-सत्य जीवन का बहुत बड़ा आधार है। इसे भगवान महावीर ने 'सं सच्यं खु भगवं' कहा है। इसकी प्राप्ति के लिये व्यक्ति को आत्मा की गहराई में उतरना पड़ता है। सत्य का ऐसा आचरण करने वाला आत्मस्थ व्यक्ति साक्षात निर्विकार निरानन्द परमात्मा स्वरूप हो जाता है। उसे किसी भी प्रकार का राग-द्वेष, हर्षविषाद अपने बाहुपाश में आवद्ध नहीं कर पाता।
__ सत्य की धुरी पर यह जड़-चेतनमय विश्व स्थित है। इसकी प्रक्रिया में थोड़ा सा भी जब व्यतिक्रम हो जाता है, तो भीषण संहार शुरू हो जाता है । यह सत्य है कि विश्व के समस्त नियम एवं विधान सत्य पर ही प्रतिष्ठित हैं।
वान् महावीर के दर्शन में सबसे बड़ी क्रान्ति सत्य के विषय में यह रही है कि वे वाणी के सत्य की अपेक्षा मन के सत्य को अधिक महत्व देते थे। जब तक मन में सत्य की प्रतिष्ठा नहीं हो जाती, मन सत्य के प्रति आग्रहशील नहीं बन जाता, उसमें झूठ, छल, कपट भरे होते हैं तब तक वाणी का सत्य सत्य नहीं माना जा सकता। सत्य का प्रथम सोपान मानसिक पवित्रता और दूसरा वचन की पवित्रता है। इन दोनों से संयुक्त आचरण का व्यक्ति सत्य का सच्चा पुजारी होता है। उसका प्रत्येक आचरण कल्याणकारी होता है।
उदारता और क्षमा सत्य के आचरण के ही दो पहलू हैं। इस प्रकार विनम्रभाव से विश्व की सेवा करने वाला व्यक्ति सत्य का सच्चा साधक है। सत्य का ऐसा आचरण करने वाला व्यक्ति सत्य के उज्ज्वलतम प्रकाश से उद्भासित होता हुआ, सत्य के वास्तविक लोक में पहुँच जाता है । सत्य की इस विराट् भूमि पर पहुँच कर साध्य स्वयं सत्यमय किंवा सत्यस्वरूप बन जाता है।
ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट है कि भगवान महावीर के सत्य के अर्थ को किसी दर्शन के निगूढ़ पर्याय में न देख कर विश्व-कल्याणक व्यवहारक्षम पर्याय में देखा और उसे जन मानस में प्रतिष्ठत किया जाय । अतएव भगवान महावीर की इस सत्य की शाश्वत् वाणी की उपादेयता सार्वयुगीन है, अनन्तकाल-पर्यन्त लोकोपकारी रहेगी।
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