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पूर्ण ढंग से प्रदर्शित किया गया है। बादामी तथा पट्टदकल के अनेक जैन मन्दिर अठपहल शीर्ष वाले हैं । द्रविड़ स्थापत्य की यह एक विशेषता है । कर्णाटक के कुछ मन्दिरों में नागर-शैली वाले उच्च शिखर हैं। ऐहोले में एक मन्दिर में भारत की तीनों मन्दिर शैलियों का समन्वय दृष्टिगोचर है।
राष्ट्रकूटों के शासनकाल में ऐलोरा का प्रख्यात् शिवमन्दिर एक विशाल पर्वत को काटकर बनाया गया है। इस मन्दिर का अलंकरण तथा मूर्तिविधान अत्यन्त कलापूर्ण है। इस मन्दिर के अनुकरण पर ऐलोरा में कई
जैन मन्दिरों का निर्माण किया गया। वहां इंद्रसभा नामक जैन प्रासाद विशेषरूप से उल्लेखनीय है। निर्माण लगभग ८०० ईसवी में हुआ। चट्टान को काटकर बनाए गये दरवाजे से इस प्रासाद में प्रवेश करते हैं। प्रासाद का प्रांगण ५० फुट वर्गाकार है। प्रांगण के मध्य में एकाश्म या इकहरे पत्थर का बना हुआ द्रविड़ शैली का मन्दिर है। पास में ऊंचा 'ध्वज-स्तम्भ' है । जैन मन्दिर में ध्वज-स्तम्भ बनाने की परम्परा दीर्घकाल तक मिलती है। उत्तर तथा दक्षिण भारत के मन्दिरों में इस प्रकार के ध्वज-स्तम्भ दर्शनीय हैं । कतिपय ध्वज-स्तम्भों को चांदी या सोने से मढ़ दिया जाता था।
जैन मन्दिर स्थापत्य का दूसरा रूप 'भूमिज मन्दिरों' में मिलता है। इन मन्दिरों का निर्माण प्रायः समतल भूमि पर पत्थर और ईंटों द्वारा किया जाता था। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, बंगाल और मध्य प्रदेश में समतल भूमि पर बनाये गये जैन मन्दिरों की संख्या बहुत बड़ी है। कभी-कभी ये मन्दिर जैन स्तूपों के साथ बनाये जाते थे।
जैन स्तूपों के सम्बन्ध में प्रचुर साहित्यिक तथा अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध हैं। उनसे ज्ञात होता है कि अनेक प्रचीन स्थलों पर उनका निर्माण हुआ। मथुरा, कौशाम्बी आदि कई स्थानों में प्रचीन जैन स्तूपों के भी अवशेष मिले हैं। उनसे यह बात स्पष्ट है कि इन स्तूपों का निर्माण ईसवी पूर्व दूसरी शती से व्यवस्थित रूप में होने लगा था। प्रारम्भिक स्तूप अर्धवृत्ताकार होते थे। उनके चारों ओर पत्थर का बाड़ा बनाया जाता था। उसे 'वेदिका' कहते थे । वेदिका के स्तम्भों पर आकर्षण मुद्राओं में स्त्रियों की मूर्तियों को विशेष रूप से अंकित करना प्रशस्त माना जाता था । गुप्त-काल से जैन स्तूपों का आकार लम्बोतरा होता गया । बौद्ध स्तूपों की तरह जैन स्तूप भी परवर्तीकाल में अधिक ऊंचे आकार के बनाये जाने लगे।
___ मध्यकाल मैं जैन मन्दिरों का निर्माण व्यापक रूप में होने लगा। भारत के सभी भागों में विविध प्रतिमाओं से अलंकृत जैन मन्दिरों का निर्माण हआ। इस कार्य में विभिन्न राजवंशों के अतिरिक्त व्यापारी वर्ग तथा जनसाधारण ने भी प्रभूत योग दिया।
चन्देलों के समय में खजुराहो में निर्मित जैन मन्दिर प्रसिद्ध हैं। इन मन्दिरों के बहिर्भाग एक विशिष्ट शैली में उकेरे गये हैं। मन्दिरों के बाहरी भागों पर समान्तर अलंकरण पट्टिकाएं उत्खचित हैं। उनमें देवी-देवताओं तथा मानव और प्रकृतिजगत को अत्यन्त सजीवता के साथ आलेखित किया गया है। खजुराहों के जैन मन्दिरों में पार्श्वनाथ मन्दिर अत्यधिक विशाल है। उसकी ऊंचाई ६८ फुट है । मन्दिर के भीतर का भाग महामन्डप, अन्तराल तथा गर्भगृह-इन तीन मुख्य भागों में विभक्त है। उनके चारों ओर प्रदक्षिणा-मार्ग है। इस मन्दिर की छत का कटाव विशेष कलात्मक है और खजुराहों के स्थापत्य विशेषज्ञों की दक्षता का परिचायक है। मन्दिर के प्रवेशद्वार पर गरुड पर दसभुजी जैन देवी आरूढ़ हैं । गर्भगृह की द्वारशाखा पर पद्मासन तथा खड्गासन में तीर्थंकरों की प्रतिमाएं उकेरी गयी हैं । खजुराहों के इन मन्दिरों में विविध आकर्षक मुद्राओं में सुर-सुन्दरियों या अप्सराओं की भी
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