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भारतीय वास्तु कला के विकास में जैनधर्म
का योगदान
-प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी
भारत में जैन धर्म के विकास की जानकारी के लिए प्राचीन जैन मन्दिरों तथा मूर्तियों का ज्ञान बहुत जरूरी है। जैन धर्भ के प्रसार के लिए यह आवश्यक था कि देश के विभिन्न भागों में मन्दिरों तथा मूर्तियों का निर्माण किया जाता। उनके माध्यम से जैनधर्भ को जनसाधारण में फैलाने में बड़ी सहायता मिली। भारतीय ललित कला के इतिहास पर भी जैन स्मारकों तथा कलाकृतियों से बड़ा प्रकाश पड़ा है।
जैनधर्भ के अन्तिम तीर्थंकर महावीरस्वामी थे। उनकी तथा उनके पहले के अनेक तीर्थंकरों की जन्मभूमि तथा कार्यक्षेत्र होने का गौरव बिहार के मगध प्रदेश को प्राप्त हुआ। वैदिक धर्भ की मान्यताओं के प्रति अनास्था का बीजारोपण भारत में मुख्यतः मगध में हुआ। उस क्षेत्र में जैन, बौद्ध, आजीविक आदि अनेक संप्रदायों का उदय तथा विकास हुआ। पाटलिपुत्र, राजगृह तथा उसके आस-पास का भूभाग इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है । धीरे-धीरे जैन तथा बौद्ध विचारधाराओं ने सुसंगठित धर्मों का रूप प्राप्त कर लिया और उनका व्यापक प्रसार मगध के बाहर भी हुआ ।
भारतीय स्थापत्य का ऐतिहासिक विवेचन करने से ज्ञात होता है कि जैन देवालयों का निर्माण मौर्य शासनकाल में होने लगा था। बिहार में गया के समीप बराबर नामक पर्वत-गुफाओं में कई शिलालेख मिले हैं। उनसे ज्ञात हुआ है कि मौर्य सम्राट अशोक ने आजीविक सम्प्रदाय के सन्यासियों के लिए शैलगृहों का निर्माण कराया। उसके वंशज दशरथ नामक शासक ने भी इस कार्य को आगे बढ़ाया । आजीविक सम्प्रदाय के प्रारम्भ कर्ता आचार्य, तीर्थंकर महावीर के समकालीन थे। बराबर पहाड़ी से कुछ दूर नागार्जुनी नामक पहाड़ी है। वहां भी मौर्यकाल में साधुओं के निवास के लिए कई शैलगृह बनाये गये । भारतीय साहित्य में पर्णशालाओं के उल्लेख मिलते हैं । उन्हीं के ढंग पर इन शैल गृहों का निर्माण किया गया । जैन साधुओं के लिए शैलगृह बनाने के उदाहरण तमिलनाडु में भी किले हैं।
ईसवी पूर्व दूसरी और पहली शती में उड़ीसा तथा पश्चिमी भारत में पर्वतों को काटकर देवालय बनाने की परम्परा विकसित हुई । उड़ीसा में भुवनेश्वर के समीप कई बड़ी गुफाएं पत्थर की चट्टानों को काटकर बनाई गई। यहां खण्डगिरि तथा उदयगिरि नामक जैन गुफाएं बहुत प्रसिद्ध है। तीसरी गुफा का नाम हाथीगुंफा है।
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