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क्या महावीर का युग कभी लौटेगा ?
-डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री
भगवान महावीर दीर्घ तपस्वी थे । वे गौतम बुद्ध की भाँति मृदुमार्गी नहीं थे। उनका जीवन कोई समझौतावादी नहीं था । वे निर्भय और पूर्ण अहिंसक थे। चरित्र के अन्तिम उत्कर्ष वीतरागता को वे प्राप्त कर चुके थे। इसलिए उन्होंने अपने समय में प्रचलित सत्, असत् , अवक्तव्य, क्रिया, अक्रिया, नियति, यदृच्छा, काल आदि वादों का यथार्थज्ञान व धर्म का वास्तविक मार्ग लोगों को बताया । प्रत्येक विषय का ज्ञान उनकी वाणी से प्रस्फुटित हुआ। अवक्तव्य कह कर वे मौन नहीं हुए। अपनी प्रथम देशना में आत्मा का स्वरूप समझाते हुए उन्होंने बताया कि
"उन्नइ वा विमेइ वा धुवेइ वा" ।-स्थानांगसूत्र स्थान १०
-आत्मा उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और मूल में ज्यों की त्यों कायम रहती है। परमार्थ से आत्मा नित्य व शाश्वत है, किन्तु सूक्ष्म तथा स्थूल शरीर की उपस्थिति में एवं संयोगीवान होने के कारण स्थल शरीर, पर्याय के नाश होने पर व्यय या परिवर्तन होने पर इसे नाशवान या अनित्य कहा जाता है। यह ठीक उसी प्रकार से हैं जैसे कि उत्प्रेरक (कैटेलिस्ट) अपनी उपस्थिति मात्र से, निजी कुछ भी खोये बिना अन्य पदार्थों में (सक्ष्म शरीरों में) परिवर्तन क्रिया उत्पन्न कर देते हैं । कभी यह क्रिया मन्द, मन्दतर और मन्दतम होती है और कभी तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम होती है। इन सभी प्रक्रियाओं में उत्प्रेरकों की रचना तथा गुणधर्मों में कोई परिवर्तन नहीं होता और न उनकी रासायनिक स्थिति में विशेष परिवर्तन होता है, जैसे कि ठोस न तो चूर्ण हो जाते हैं और न द्रव सघन हो जाते हैं ।
___ इस प्रकार आत्मा और जगत् के सम्बन्ध में पूर्व तीर्थकरों तथा भगवान महावीर का उपदेश परम वैज्ञानिक सत्य की भाँति कार्य-कारण, सत्-असत् आदि की विभिन्न अवस्थाओं को अनेकांत-धर्म के रूप में विवेचित करता है। एक ही वस्तु में "स्वभावी और वैभाविक" विरोधी अनेक धर्म रहते हैं । किन्तु हम अपनी इंद्रियों के द्वारा जिस समय उसमें शीतलता देखते हैं, उस समय उष्णता लक्षित नहीं होती और जिस समय उष्णता दिखायी पडती है उस समय शीतलता लक्षित नहीं होती। वास्तव में ये सभी पर्यायवान अवस्थाएं हैं। इनका विस्तृत और सक्ष्म विश्लेषण विज्ञान की अत्याधुनिक पद्धतियों के आधार पर किया जा सकता है । जब तक द्रव्य की इन सभी अवस्थाओं और स्थितियों का ठीक से अध्ययन और विश्लेषण न हो, तब तक जीव और जीव की संयोगी अवस्था का वास्तविक ज्ञान नहीं हो सकता है। किन्तु एक बार ठीक से सम्यक् विश्लेषण और अध्ययन होने के पश्चात जो विश्वास होगा, वह सम्यक श्रद्धान कहा जायेगा, जो धर्म की प्रथम भूमिका है। अतः एक धर्म को समझने में भौतिक विज्ञान भी हमारी सहायता कर सकता है।
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