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ममत्वभाव का त्याग
५. अपरिग्रह-किसी भी वस्तु के प्रति मूर्छा का भाव ही परिग्रह का मूल कारण है। परिग्रह का अर्थ है-संग्रह (hoarding) और अपरिग्रह का अर्थ है-त्याग, किसी वस्तु का अनावश्यक संग्रह न करके उसका जन-कल्याण हेतु वितरण कर देना। कारण यह भी मनुष्य को अहंकार एवं मोहरूपी अंधेरे अथाह भंवर में डुबो देने वाला होता है। यह अर्थ (सम्पति) अनित्य है, चंचल है, क्रोध, मान और लोभ की उद्भाविका है। धर्मरूपी कल्पवृक्ष को जला देने वाली है। यह न्याय, क्षमा, सन्तोष, नम्रता आदि सद्गुणों को खा जाने वाला कीड़ा है । परिग्रह बोधि बीज (सम्यक्त्व) का विनाशक है और संयम, संवर, तथा ब्रह्मचर्य का घातक है। चिन्ता और शोक रूप सागर को बढ़ाने वाला तृष्णारूपी विष-बेल को सींचने वाला क्रूर-कपट का भण्डार और क्लेश का आगार है ।
ज्ञानी पुरुष संयम साधक उपकरणों को लेने और रखने में कहीं भी किसी प्रकार का ममत्व नहीं करते । और तो क्या, अपने शरीर तक के प्रति भी ममत्वभाव नहीं रखते। जो पुरुष सम्पूर्ण कामों (इच्छा कामों और मदनकामों) का त्याग कर ममत्व रहित व अहंकार रहित निस्पृह जीवन बिताता है, वह स्थितप्रज्ञ है। वही अखण्ड शान्ति को प्राप्त करके ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त कर लेता है। अतः अपरिग्रह एक महान व्रत है, जिसका आज के युग में जनकल्याण की दृष्टि से और भी अधिक महत्व है, क्योंकि वर्तमान युग में परिग्रह लालसा बहुत बढ़ी
भगवान महावीर ने अपरिग्रह के विषय में एक बहुत ही बड़ी बात कही है कि अपरिग्रह किसी वस्तु के त्याग का नाम नहीं अपितु किसी वस्तु में निहित ममत्व-मूर्छा के त्याग को अपरिग्रह कहते हैं। जड़ चेतन, प्राप्त-अप्राप्त, दृष्ट-अदृष्ट, श्रुत-अश्रुत वस्तु के प्रति ममता, लालसा, तृष्णा व कामना बनी रहती है तब तक वाहत्याग सही माने में त्याग नहीं कहा जा सकता। क्योंकि किसी परिस्थिति विशेष में विवश होकर भी किसी वस्तु का त्याग किया जा सकता है। किन्तु उसके प्रति निहित ममत्व का त्याग नहीं हो पाता। यही ममत्व संत्रास का कारण है । यदि लोग वस्तु के अनावश्यक संग्रह को रोकना चाहते हैं। उसका उन्मूलन करना चाहते हैं, तो वस्तु के त्याग से पूर्व वस्तु में निहित ममत्व के त्याग को अपनाना होगा और ऐसा किये बिना अपरिग्रह का पालन न हो पायेगा, इसी कारण भगवान महावीर ने गृहस्थ श्रावकों के लिए परिग्रह-परिमाणव्रत बताया है। विश्व के बहुसंख्यक अभावग्रस्त प्राणनाण पा सकते हैं । महावीर वाणी की भूमिका
ऊपर मैंने भगवान महावीर के सार्वजनीन, सार्वभौम वाणियों का विहंगम विवेचन किया है। उस विवेचन के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भगवान महावीर की वाणियों की शाश्वत महत्व है, चाहे म उसे आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में देखें, चाहे सामाजिक एवं राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देखें अथवा सांस्कृतिक एवं आर्थिक
८. अर्थमनथं भावय नित्यम्-शंकराचार्य ९. अवि अप्पगोवि देहनि,
नायरंति ममाइयं-दशवकालिक १०. विहाय कामान्यः सवीन्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरंहकारः स शांतिमधिगच्छति ।। गीता, २, ७
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