________________
नैतिकता का मापदण्ड
३. अस्तेय-कोई भी वस्तु चाहे वह सजीव हो अथवा निर्जीव, उसके स्वामी के आदेश के बिना उसे कदापि वहीं लेना चाहिये । दांत कुरेदने को तिनका भी बिना आज्ञा के नहीं लिया जा सकता।'
चोरी के बहुत से कारण हैं, जिनमें चार मुख्य हैं। इनमें प्रथम कारण है-वेरोजगारी। काम धन्धा नहीं मिलने से, बेकार हो जाने से और अपना जीवन नहीं चला पाने से कितने ही व्यक्ति चोरी करना शुरू कर देते हैं। इनमें जो सुसभ्य एवं सुसंस्कृत मनुष्य होते हैं, वे तो मरण पसन्द कर सकते हैं किन्तु चोरी का आचरण नहीं अपना सकते । किन्तु ऐसे व्यक्ति स्वल्प ही होते हैं।
चोरी अपव्यय करना भी सिखाती है । अनेक मनुष्य विवाह, मृतभोज, अथवा अन्य यज्ञादि में अपना पूर्ण शान-शौकत दिखाने के लिये बेशुमार धन कर्ज लेकर खर्च कर डालते हैं, जिसे बाद में, अपनी सीमित आमदनी से चका नहीं पाने के कारण चोरी का रास्ता अपनाते हैं।
__ कुछ लोग कुशिक्षा, कुसंस्कार एवं कुसंगति के कारण भी चोरी करने लग जाते हैं। अतएव अस्तेय का महत्व भी सार्वकालिक एवं जीवनव्यवहार में शाश्वत है। इसका महत्व कदापि कम नहीं हो सकता। आत्मा की शुद्ध परिणति
४. ब्रह्मचर्य-ब्रह्म का अर्थ है-मात्मा का शुद्ध भाव, परमात्मभाव और 'चर्य' का अर्थ है-चलना, गति करता, आचरण करना । आत्मा को विकारी भावों से हटा कर शुद्ध परिणति में केन्द्रित करना-ब्रह्मचर्य का पालन करना है। आत्मा की शुद्ध परिणति ही परमात्मज्योति है, परब्रह्म है, और इसे प्राप्त करने की साधना का नाम ही ब्रह्मचर्य है तथा इस प्रकार की साधना करने वाले का नाम है-ब्रह्मचारी (Searcher after God)
कतिपय व्यक्ति ब्रह्मचर्य का अर्थ स्त्री-संसर्ग से दूर होना बताते हैं। किन्तु जैनधर्म ब्रह्मचर्य का इतना सीमित अर्थ नहीं लेता । ब्रह्मचारी का अर्थ है कि स्त्री का स्पर्श करने से मन में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न न हो. जिस तरह कागज पर छपे सुन्दर रमणीक चित्र को स्पर्श करने से नहीं होता। अंतर्मन में सच्ची निर्विकारता दोनो स्पर्श करने पर भी विकार पैदा नहीं होता। अंतर्मन की निर्विकार दशा ही वस्तुतः सच्चा ब्रह्मचर्य है।
ब्रह्मचर्य किसी प्रकार का बाहरी दबाव या बंधन नहीं, अपितु मन का संयम है। जैनागमों में इस संयम को सर्वोपरि महत्व देते हुए असीम कामनाओं को सीमित करने हेतु विवाह को स्वीकार किया है। इसमें कहा हैविवाह पूर्ण संयम की ओर अग्रसर होने का महत्वपूर्ण चरण है और पाशविक्र जीवन से निकल कर नीतिपूर्ण मर्यादित मानव जीवन को अंगीकार करने का साधन है। किन्तु इसमें वेश्या-गमन, एवं परदार सेवन के लिये कोई स्थान नहीं है बल्कि मैथुन सेवन को अधर्म का मूल और बड़े-बड़े दोषों को बढ़ाने वाला कहा है। इस रूप में भगवान महावीर ने जन चेतना के समक्ष ब्रह्मचर्य का एक महान् आदर्श उपस्थित किया है, जो कि नैतिकता पर सर्वांशतः आधारित है। इसके बिना मानव का जीवन तेजोहीन, ओजहीन, कांतिहीन एवं एक प्रकार से निष्प्राण हो जाएगा। अतः भगवान-महावीर की ब्रह्मचर्य सम्मत वाणी भी सार्वकालिक है, इसमें कोई संशय नहीं है।
६. चितमंतमचित वा अप्यं वा जइ वा बाहु । दंत-सोहणमेतं पि उग्गहंसि अजाइया । ७. मूलमेयमहमस्स महादोससमुस्सयं ।
तम्हा मेहणसंसग्गं निग्गंथा वज्जयंतिणं दशवकालिक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org