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महावीर का नैतिकता - बोध
- डा० कमलचन्द सोगानी
महावीर तो आत्मानुभूति और समाज में नैतिक मूल्यों के सृजन के जीते-जागते उदाहरण हैं । नैतिक मूल्यों के सन्दर्भ में महावीर ने व्यक्ति और उसके सामाजिक दायित्व पर पूर्ण बल दिया । सर्व प्रथम महावीर ने व्यक्ति को आत्मज्ञ होने की प्रेरणा दी क्योंकि इसके बिना निर्भयता प्राप्त नहीं हो सकती और निर्भयता बिना सामाजिक दायित्वों का निर्वाह भली प्रकार नहीं हो सकता । जो व्यक्ति लौकिक प्रशंसा - निन्दा के भय से भयभीत है, परलोक की उधेड़बुन में ग्रस्त है, मरण-भय से आतंकित है, आकस्मिक एवं अरक्षाभय से चिन्तित है, वह मानसिक सन्तुलन के अभाव में सामाजिक नैतिकता का पालन नहीं कर सकता । इस तरह से जो महत्व मुँह के लिए चक्षु का है, वही महत्व नैतिकता के लिए आत्मज्ञता और निर्भयता का है। दूसरी बात महावीर ने व्यक्ति विकास के लिए कही वह थी "उन सब इच्छाओं का जन्म न होने दो जो व्यक्ति का ह्रास करने वालीहों ।" जिस व्यक्ति में सदैव भौतिक सम्पदाओं को प्राप्त करने की इच्छा रहती है, वह कभी भी समाज में नैतिक मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकता । अतः महावीर ने कहा कि इच्छाओं का परिमार्जन करो। महावीर का यह भी कहना था कि जो व्यक्ति अविवेकी परम्पराओं से चिपके रहने की प्रवृत्ति वाला होता है वह सदैव भूतकालका ही अनुगामी होने के कारण उज्ज्वल भविष्य का निर्माण नहीं कर सकता । अतः उन्होंने कहा कि असद् परम्पराओं की दासता व्यक्ति ही को विकासोन्मुखी बनाने में बाधक होती है, व्यक्ति वर्तमान में न जी कर सर्वदा भूतकाल के बोझ को ढोता रहता है। इससे व्यक्ति तो पिछड़ हो जाता है, साथ ही समाज में जड़ता को प्राप्त होकर अपनी जीवन दायिनी शक्ति से हाथ धो बैठता है । महावीर ने ये बातें व्यक्ति को उसके अपने उत्थान के लिए कहीं । वे इस बात को भली-भांति जानते थे कि प्रत्येक कार्य के लिए मूल में व्यक्ति होता है, इसलिए सर्वप्रथम व्यक्ति को विकासोन्मुखी बनाना अत्यन्त आवश्यक है । जब व्यक्ति विकासगामी बन जाता है तो सामाजिक दायित्वों के लिए उचित भूमिका तैयार की जाती है । महावीर व्यक्ति तक रुके नहीं । वे जानते थे कि व्यक्ति समाज से अलग नहीं होता; उसका दूसरों के प्रति भी कुछ दायित्व है । जहाँ 'दूसरा' होता है वहीं से समाज प्रारम्भ होता है । स्वस्थ समाज के लिए 'मैं' और 'तू' का उचित सामंजस्य आवश्यक है। महावीर ने कहा कि अनैतिक के लिये सारा ज्ञान उसी तरह अर्थहीन है जैसे अन्धे के लिए जलते हुए हजारों दीपक ।
महावीर ने समाज के लिए जिन मूलभूत नैतिक मूल्यों का प्रतिपादन किया है वे हैं-अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत | सब प्राणियों के प्रति समभाव अहिंसा है। महावीर ने कहा कि किसी भी प्राणी को मत मारो, न उस पर अनुचित शासन करो, न उसे पराधीन बनाओ, न उसे परिताप दो और न ही उसे उद्विग्न करो, क्योंकि अन्ततः प्राणीमात्र तुम्हारे अपने जैसा ही है । ऊँच-नीच, छुआ-छूत हिंसा की पराकाष्ठाएं हैं। महावीर ने स्वंय दलित से दलित समझे जाने वाले लोगों को अपने गले लगाया और उनको सामाजिक सम्मान देकर उनमें आत्मसम्मान प्रज्वलित किया। महावीर ने कहा कि समाज में प्रत्येक मनुष्य को, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, धार्मिक एवं सामाजिक स्वतंत्रता है । प्रत्येक मनुष्य का अस्तित्व गौरवपूर्ण है उसकी गरिमा को बनाए रखना अहिंसा की पालना है | अहिंसक कभी वर्ग शोषण का पक्षपाती नहीं होता । वह कभी अपने आश्रितों का शोषण नहीं करता । मानव मात्र के प्रति वात्सल्य उसकी स्वाभाविकता होती है । वह हिंसाकारक, कलहकारी और कठोर वचनों का प्रयोग नहीं करता तथा सदैव हितकारी एवं प्रियवचन बोलता है । बहुमूल्य वस्तु को अल्पमूल्य में लेना, चोरी का
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