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मांस-मधु इन तीनों को तथा बड़, पीपल, पाकर, कठूमर, उमर इन पांच फलों का ऐसी आठ वस्तुओं का अवश्य ही त्याग कर देना चाहिये ।
मद्य – रस से उत्पन्न हुये बहुत से जीवों की योनिस्वरूप है अतः उसके पीने से सभी जावों की हिंसा हो जाने से महान पाप का बंध होता है ।
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मांस-प्राणियों के कलेवर को मांस कहते हैं । यह मांस बिना जीवघात के असम्भव है । यद्यपि स्वयं मरे हुए बैल, भैस आदि जीवों के कलेवर को भी मांस कहते है किन्तु उस मांस के भक्षण में भी उस मांस के आश्रित रहने वाले उसी जाति के असंख्य निगोद जीवों का घात हो जाने से महान हिंसा होती है। बिना पके, पके हुये तथा पकते हुए भी मांस के टुकड़ों में उसी जाति के निगोदिया जीव निरन्तर ही उत्पन्न होते रहते हैं । इसलिए मांसाहारी महापातकी है ।
मधु जो मधुमक्खी के छत्ते से स्वयं भी टपका हुआ है ऐसा भी शहद अनन्त जीवों का आश्रय भूत होने से निषिद्ध है। मधु के एक बिन्दु के खाने से भी सात गांव के जलाने का पाप लगता है।
अतः इसका त्याग भी
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ख-४
श्रेयस्कर है ।
मद्य, मांस, मधु और मक्खन, ४८ मिनट के अनन्तर की लोनी, ये चारों पदार्थ अहिंसक को नहीं खाने चाहिए क्योंकि इनमें उसी वर्ण के जीव उत्पन्न होते रहते हैं । तथा चर्म स्पर्शित घी- तेलजल एवं अचार आदि भी नहीं खाने चाहिए ।
बड़-पीपल उमर कठूमर और पाकर फल ये भी सजीवों की योनिभूत हैं, इनको सुखाकर भी नहीं खाना चाहिये ।
आम या पक्यां वा खावति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम् ।
स निर्हति सततनिचितं पिडं बहुजीव कोटीनाम् ।। ६८ ।। (श्री अमृतचन्द्र सूरि )
मद्य, मांस, मधु और पांच उदुंबर फल ये आठों पदार्थ महापाप के कारण है, इनका त्याग करने पर ही मनुष्य जिनेन्द्र भगवान के उपदेश को सुनने का पान हो सकता है अन्यथा नहीं ।
विदेह क्षेत्र के मधु नाम के वन में किसी समय सागरसेन नाम के एक दिगम्बर मुनिराज मार्ग भूलकर भटक रहे थे । उस समय एक पुरुरवा नाम का भील उन्हें मृग समझकर बाण से मारने को उद्यत हुआ कि उसी समय उसकी स्त्री ने कहा कि इन्हें मत मारो ये वन देवता विचर रहे हैं तब भील ने मुनि के पास आकर उन्हें नमस्कार किया और उन्हें मार्ग बता दिया । मुनिराज ने उसे भद्र समझकर मद्य मांस-मधु का त्याग करा दिया । जिसके फलस्वरूप वह भील जीवन भर पालन कर अन्त में मरकर सौधर्मं स्वर्ग में देव हो गया । देव के वैभव और सुखों को भोगकर वह भील का जीव इसी अयोध्या नगरी में भगवान वृषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत महाराज की अनन्तमती रानी से मरीचिकुमार नाम का पुत्र हो गया ।
इस मरीचिकुमार ने पाखंडमत का प्रचार करने से कालांतर में बहुत काल तक पुनः संसार के दुःख भोगे । अनन्तर सिंह की पर्याय से मुनिराज से सम्यक्त्व और अहिंसाणुव्रत आदि पंच अणुव्रत ग्रहण कर सल्लेखना से मरकर देव हो गया । इस सिंह पर्याय से दसवें भव में यही जीव भगवान महाबीर हुआ है ।
देखिये अहिंसा धर्म ही इस जीव की उन्नति करके इसे स्वर्गादि के उत्तम उत्तम सुखों को देकर क्रमशः इस जीव को परमात्मा बना देता है ।
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